महेंद्र मिश्र : जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय (दूसरा भाग)
गतांक से आगे...
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महेंद्र मिश्र का जन्म सारण जिला (बिहार) के मुख्यालय छपरा से १२ किलोमीटर उत्तर स्थित जलालपुर प्रखंड से सटे एक गाँव कांही मिश्रवलिया में १६ मार्च,१८८६ को मंगलवार को हुआ | कांही और मिश्रवलिया दोनों गाँव सटे हैं | बीच में एक नाला अथवा नारा था,जिसके किनारे कांही पर होने के कारण इस गाँव का नाम कांही मिश्रवलिया कहा जाने लगा | इस गाँव में अन्य जातियों के लोग भी थे पर ब्राह्मणों की जनसँख्या अधिक थी,आज भी है | ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण-मिश्र पदवीधारी लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के लगुनही धर्मपुरा से आकर बस गये थे | संभवतः रोज़ी-रोटी और शांति की तलाश में ये लोग पश्चिम से पूर्व की तरफ बढ़े थे | गाँव में आकर बसने वाले प्रथम व्यक्ति का पता नहीं चलता पर महेंद्र मिश्र के छोटे भाई श्री बटेश्वर मिश्र जो आज भी जीवित हैं,की बात मानें तो उस प्रथम व्यक्ति की पाँचवीं पीढ़ी में महेंद्र मिश्र का जन्म हुआ था |
मिश्र जी के परिवार के सदस्य बताते हैं कि महेंद्र मिश्र का जन्म किसी शिवभद्र दास साधु के आशीर्वाद से हुआ था और उसी साधु की इच्छानुसार बालक का नाम महेंद्र हुआ | स्वाभाविक है, ऐसी घटना का कोई प्रमाण नहीं है | महेंद्र मिश्र के पिता का नाम था - शिवशंकर मिश्र | संपन्न परिवार के थे | छपरा के तत्कालीन जमींदार हलिवंत सहाय के वसूली क्षेत्र (असूलात) के एक छोटे जमींदार थे तथा दोनों में गहरी मित्रता थी | शिवशंकर मिश्र हलिवंत सहाय के पुजारी नहीं थे - जैसा कुछ लोगों ने कल्पना कर लिया है | संतान होने की दीर्ध प्रतिक्षोपरांत पत्थर पर दूब की तरह महेंद्र मिश्र का जन्म हुआ |
इस समय मिश्रवलिया में एक संस्कृत पाठशाला चलता था | लेकिन महेंद्र मिश्र के बालमन से उस नियमित और रटंत संस्कृत शिक्षा से विद्रोह करते हुए कभी उसे मन से स्वीकार नहीं किया | उनके आचार्य थे पंडित नान्हू मिश्र जो विद्वान पंडितों की श्रेणी में आते थे | पाठशाला उन्हीं के दरवाजे पर चलता था | गाँव के बीच में एक जोड़ा मंदिर था जहाँ हनुमान जी का अखाड़ा था | मंदिर के प्रांगण में हमेशा रामायण मण्डली द्वारा गायन-वादन होता था | अखाड़े में हमेशा कुश्तियाँ होती रहती थीं | रामायण मण्डली का प्रभाव,संगीत के प्रति आकर्षण और कुश्ती के रोमांच ने महेंद्र मिश्र को शिक्षा के अखाड़े से बाहर कर दिया | रामायण सुनने और गाने की अभिरुचि बढ़ी तो फिर बढती ही गयी | कालान्तर में वे बढ़िया घोड़ा रखने के शौक़ीन बने छरहरे बदन के पहलवान बने और सजीले गठीले बदन वाले कड़क मूँछ के जवान बने |
घर के लोगों की विशेष कोशिश से वे उन्हीं पंडित नान्हूँ मिश्र की पाठशाला में वे जाने लगे | वहाँ अध्ययन कम ही हुआ,श्रवण और मनन अधिक हुआ | जिस समय पंडित जी संस्कृत के जिज्ञासु और शास्त्री-आचार्य के छात्रों को अभिज्ञान शाकुंतलम,रघुवंशम और ऋतु संहारम आदि का प्रबोध कराते उस समय वे चुपचाप सबकुछ सुनते | कुछ समझते,कुछ नहीं समझते | इस तरह संस्कृत साहित्य के भक्ति-काव्य,श्रृंगार-काव्य और प्रकृति-वर्णन की परम्परा से उनका परिचय हुआ | वातावरण ने असर दिखाया | उनके भीतर जो कवि-गीतकार सुषुप्त पड़ा था,आँख मलते अंगड़ाईयाँ लेने लगा | अध्ययन के स्थान पर सरस्वती-पुत्र ने गुनगुनाना सीखा | बुद्धि और भाव देखकर लोगों ने कहना शुरू किया इस बालक की जिह्वा पर सरस्वती का स्थान है | काव्यशास्त्रीय भाषा में जिसे 'प्रतिभा' कहा गया है,वही ईश्वरीय प्रतिभा दृष्टिगोचर होने लगी | विधिवत कोई विद्यालयी उपाधि उन्हें प्राप्त हुई,इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता | उनके सम्पूर्ण लेखन में आये तत्सम शब्दों का प्रयोग,यत्र-तत्र संस्कृत में उद्धृत संस्कृत के श्लोक तथा विधिवत पौराणिक प्रसंग आदि सिद्ध करते हैं कि,किसी न किसी रूप में संस्कृत साहित्य से वे परिचित अवश्य थे |
जिस समय शिवशंकर मिश्र का निधन हुआ उस समय बाबू हलिवंत सहाय का सितारा गर्दिश में था | उनके पट्टीदार लोगों से संपत्ति पर हक़ के लिए उनका मुकदमा चल रहा था | हलिवंत सहाय विधुर थे,इस बीच उनको एक सलाहकार और विश्वस्त व्यक्ति की जरुरत थी | मुजफ्फरपुर की एक प्रसिद्ध गायिका और नर्तकी की बेटी ढेलाबाई का अपहरण कर छपरा लाने में वे महेंद्र मिश्र की भूमिका से परिचित हो चुके थे | फलतः हलिवंत सहाय ने उन्हें अपनी पूरी संपत्ति का ट्रस्टी बना दिया था | असल में महेंद्र मिश्र उनके अन्तरंग सखा,एक मात्र शुभचिंतक अभिभावक और सलाहकार बन चुके थे | हलिवंत सहाय ने ढेलाबाई को अपनी पत्नी का सम्मानित दर्ज़ा प्रदान कर दिया तथा चल बसे | उनके पट्टीदारों ने उनकी नई पत्नी को उनकी पत्नी मानने से इनकार कर दिया तथा उसको भगाकर सारी संपत्ति से बेदखल करना चाहा तो महेंद्र मिश्र ने अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए ढेलाबाई की मदद की | चूँकि न्यायालय द्वारा सारी संपत्ति जब्त कर ली गयी थी,महेंद्र मिश्र अपनी छोटी जमींदारी की आय से उनकी मदद भी करते थे |
शेष अगली पोस्ट में...
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महेंद्र मिश्र का जन्म सारण जिला (बिहार) के मुख्यालय छपरा से १२ किलोमीटर उत्तर स्थित जलालपुर प्रखंड से सटे एक गाँव कांही मिश्रवलिया में १६ मार्च,१८८६ को मंगलवार को हुआ | कांही और मिश्रवलिया दोनों गाँव सटे हैं | बीच में एक नाला अथवा नारा था,जिसके किनारे कांही पर होने के कारण इस गाँव का नाम कांही मिश्रवलिया कहा जाने लगा | इस गाँव में अन्य जातियों के लोग भी थे पर ब्राह्मणों की जनसँख्या अधिक थी,आज भी है | ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण-मिश्र पदवीधारी लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के लगुनही धर्मपुरा से आकर बस गये थे | संभवतः रोज़ी-रोटी और शांति की तलाश में ये लोग पश्चिम से पूर्व की तरफ बढ़े थे | गाँव में आकर बसने वाले प्रथम व्यक्ति का पता नहीं चलता पर महेंद्र मिश्र के छोटे भाई श्री बटेश्वर मिश्र जो आज भी जीवित हैं,की बात मानें तो उस प्रथम व्यक्ति की पाँचवीं पीढ़ी में महेंद्र मिश्र का जन्म हुआ था |
मिश्र जी के परिवार के सदस्य बताते हैं कि महेंद्र मिश्र का जन्म किसी शिवभद्र दास साधु के आशीर्वाद से हुआ था और उसी साधु की इच्छानुसार बालक का नाम महेंद्र हुआ | स्वाभाविक है, ऐसी घटना का कोई प्रमाण नहीं है | महेंद्र मिश्र के पिता का नाम था - शिवशंकर मिश्र | संपन्न परिवार के थे | छपरा के तत्कालीन जमींदार हलिवंत सहाय के वसूली क्षेत्र (असूलात) के एक छोटे जमींदार थे तथा दोनों में गहरी मित्रता थी | शिवशंकर मिश्र हलिवंत सहाय के पुजारी नहीं थे - जैसा कुछ लोगों ने कल्पना कर लिया है | संतान होने की दीर्ध प्रतिक्षोपरांत पत्थर पर दूब की तरह महेंद्र मिश्र का जन्म हुआ |
इस समय मिश्रवलिया में एक संस्कृत पाठशाला चलता था | लेकिन महेंद्र मिश्र के बालमन से उस नियमित और रटंत संस्कृत शिक्षा से विद्रोह करते हुए कभी उसे मन से स्वीकार नहीं किया | उनके आचार्य थे पंडित नान्हू मिश्र जो विद्वान पंडितों की श्रेणी में आते थे | पाठशाला उन्हीं के दरवाजे पर चलता था | गाँव के बीच में एक जोड़ा मंदिर था जहाँ हनुमान जी का अखाड़ा था | मंदिर के प्रांगण में हमेशा रामायण मण्डली द्वारा गायन-वादन होता था | अखाड़े में हमेशा कुश्तियाँ होती रहती थीं | रामायण मण्डली का प्रभाव,संगीत के प्रति आकर्षण और कुश्ती के रोमांच ने महेंद्र मिश्र को शिक्षा के अखाड़े से बाहर कर दिया | रामायण सुनने और गाने की अभिरुचि बढ़ी तो फिर बढती ही गयी | कालान्तर में वे बढ़िया घोड़ा रखने के शौक़ीन बने छरहरे बदन के पहलवान बने और सजीले गठीले बदन वाले कड़क मूँछ के जवान बने |
घर के लोगों की विशेष कोशिश से वे उन्हीं पंडित नान्हूँ मिश्र की पाठशाला में वे जाने लगे | वहाँ अध्ययन कम ही हुआ,श्रवण और मनन अधिक हुआ | जिस समय पंडित जी संस्कृत के जिज्ञासु और शास्त्री-आचार्य के छात्रों को अभिज्ञान शाकुंतलम,रघुवंशम और ऋतु संहारम आदि का प्रबोध कराते उस समय वे चुपचाप सबकुछ सुनते | कुछ समझते,कुछ नहीं समझते | इस तरह संस्कृत साहित्य के भक्ति-काव्य,श्रृंगार-काव्य और प्रकृति-वर्णन की परम्परा से उनका परिचय हुआ | वातावरण ने असर दिखाया | उनके भीतर जो कवि-गीतकार सुषुप्त पड़ा था,आँख मलते अंगड़ाईयाँ लेने लगा | अध्ययन के स्थान पर सरस्वती-पुत्र ने गुनगुनाना सीखा | बुद्धि और भाव देखकर लोगों ने कहना शुरू किया इस बालक की जिह्वा पर सरस्वती का स्थान है | काव्यशास्त्रीय भाषा में जिसे 'प्रतिभा' कहा गया है,वही ईश्वरीय प्रतिभा दृष्टिगोचर होने लगी | विधिवत कोई विद्यालयी उपाधि उन्हें प्राप्त हुई,इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता | उनके सम्पूर्ण लेखन में आये तत्सम शब्दों का प्रयोग,यत्र-तत्र संस्कृत में उद्धृत संस्कृत के श्लोक तथा विधिवत पौराणिक प्रसंग आदि सिद्ध करते हैं कि,किसी न किसी रूप में संस्कृत साहित्य से वे परिचित अवश्य थे |
जिस समय शिवशंकर मिश्र का निधन हुआ उस समय बाबू हलिवंत सहाय का सितारा गर्दिश में था | उनके पट्टीदार लोगों से संपत्ति पर हक़ के लिए उनका मुकदमा चल रहा था | हलिवंत सहाय विधुर थे,इस बीच उनको एक सलाहकार और विश्वस्त व्यक्ति की जरुरत थी | मुजफ्फरपुर की एक प्रसिद्ध गायिका और नर्तकी की बेटी ढेलाबाई का अपहरण कर छपरा लाने में वे महेंद्र मिश्र की भूमिका से परिचित हो चुके थे | फलतः हलिवंत सहाय ने उन्हें अपनी पूरी संपत्ति का ट्रस्टी बना दिया था | असल में महेंद्र मिश्र उनके अन्तरंग सखा,एक मात्र शुभचिंतक अभिभावक और सलाहकार बन चुके थे | हलिवंत सहाय ने ढेलाबाई को अपनी पत्नी का सम्मानित दर्ज़ा प्रदान कर दिया तथा चल बसे | उनके पट्टीदारों ने उनकी नई पत्नी को उनकी पत्नी मानने से इनकार कर दिया तथा उसको भगाकर सारी संपत्ति से बेदखल करना चाहा तो महेंद्र मिश्र ने अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए ढेलाबाई की मदद की | चूँकि न्यायालय द्वारा सारी संपत्ति जब्त कर ली गयी थी,महेंद्र मिश्र अपनी छोटी जमींदारी की आय से उनकी मदद भी करते थे |
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