महेंद्र मिश्र : जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय ( भाग-३)

गतांक से आगे ...

...सारे देश में स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखा जा रहा था । जमींदारी प्रथा ध्वस्त हो रही थी । देश की राजनीति के क्षितिज पर गांधी जी का उदय हो चुका था और वे रामकृष्ण परमहंस,आर्य समाज, ब्रह्म समाज,गोखले और तिलक की समतल की गयी भूमि पर विराट जन जागरण पर आधारित स्वतंत्रता संग्राम की नींव दे चुके थे । अधिकाँश उद्योगपति एवं बड़े-बड़े जैम्नदार ऊपर से गांधी के साथ मगर हृदय से साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ हो गए थे ।

महेंद्र मिश्र भी एक छोटे जमींदार थे । उन्हें लगा कि वे न तो अपने परिवार के प्रति जिम्मेवार रह गए हैं न अपने जमींदार मालिक स्वर्गीय हलिवंत सहाय के प्रति ही और न ढेलाबाई की ही ठीक से सहायता कर रहे हैं । उनकी प्रथम पत्नी अपने मायके (तेनुआ) की संपत्ति पर ही रहती थी,सुन्दर भी नहीं थी,पारिवारिक जीवन भी तनावपूर्ण ही चल रहा था हालंकि उन्हीं पत्नी परेखा देवी से उनके पुत्र हिकायत मिश्र का जन्म हो चुका था संगी साथियों,गुनी कलाकारों और देश को समर्पित युवा क्रांतिकारियों का सहायता द्वार भी बंद हो रहा था । उन्होंने एक निर्णय लिया और चल पड़े कलकत्ता । महेंद्र मिश्र ने सिर्फ देना सिखा था,लेना और माँगना उनके शब्दकोष में थे ही नहीं । इसका कारण था बचपन से लेकर यौवन तक उन्होंने अभाव तो जाना ही नहीं था । पूरा यौवन काल हलिवंत सहाय के दरबार में,दरबारी संस्कृति में,सामंती परिवेश में तथा नजाकत-नफासत से पूर्ण साफ़-सुथरी जीवन शैली में बीता था । पहली बार अर्थाभाव महसूस हुआ था । शायद यही कारण है कि,उनका सम्पूर्ण कवी-कर्म सामंती-परिवेश और रीतिकालीन दरबारी संस्कृति के प्रभाव से मुक्त होकर आम आदमी के अभाव और संघर्षपूर्ण जीवन से पूरी तरह साहचर्य स्थापित नहीं कर सका ।

कलकत्ता उस समय राष्ट्र की सभी औद्योगिक,राजनितिक एवं सांस्कृतिक उथल-पुथल का जीवित केंद्र था । भोजपुरी क्षेत्र के हजारों लोग कलकत्ता जाते और जीविकोपार्जन करते थे । महेंद्र मिश्र का उनसे आमदरफ्त था ।  बंगाली समाज की सोच और उनके सामाजिक,राजनीतिक जीवन दर्शन से वे पूर्ण परिचित भी थे । बंगाली युवकों की रगों में राष्ट्रभक्ति की जो तस्वीर,जो गर्मी और समर्पण की भावना उन्होंने इस यात्रा में महसूस किया तथा विक्टोरिया मैदान में नेताजी का उत्तेजक भाषण सुना उससे उनका मन बेचैन हो गया कि राष्ट्र के लिए कुछ होना चाहिए ।(*साक्षात्कार - श्री जनार्दन मिश्र,ग्राम-कांही,दिनांक-२०-९-१९९९)

एक दिन किसी अंग्रेज अफसर ने जो खूब भोजपुरी और बांग्ला भी समझता था,इनको 'देशवाली' समाज में गाते देखा । उसने इनको नृत्य-गीत के एक विशेष स्थान पर बुलवाया । ये गए । बातें हुईं ।वह अँगरेज़ उनसे बहुत प्रभावित हुआ । इनके कवि की विवशता,हृदय का हाहाकार,ढेलाबाई के दुखमय जीवन की कथा,घर परिवार की खस्ताहाली तथा राष्ट्र के लिए कुछ करने की ईमानदार तड़प देखकर उसने इनसे कहा- तुम्हारे भीतर कुछ ईमानदार कोशिशें हैं । हम लन्दन जा रहे हैं । नोट छापने की यह मशीन लो और मुझसे दो-चार दिन काम सीख लो । यह सब घटनाएँ १९१५-१९२० के आस-पास की हैं ।

महेंद्र मिश्र नोट छापने की मशीन लेकर मिश्रवलिया लौट आये । नोट बनाने का काम गुप्त रूप से शुरू हुआ । अब घर की रईसी लौटने लगी । छोटे भाई युवक हो रहे थे । पारिवारिक खर्च के अतिरिक्त अब उनकी इतनी सामर्थ्य भी हो चुकी थी कि असहाय ढेलाबाई की मदद भी कर सकें । ढेला का मुक़दमा ठीक से देखा जाने लगा । रिश्तेदार सम्बन्धियों का सेवा-सत्कार पहले की तरह जमींदारी ठाट से होने लगा । दरवाजे पर दो-दो हाथी झूमने लगे । सोनपुर मेला से सबसे महंगे घोड़े दरवाजे पर आने लगे ।(*साक्षात्कार-श्री दारोगा सिंह,ग्राम-मझवलिया । ये घोड़ों के शौक़ीन तथा प्रसिद्ध घुड़सवार थे। दिनांक-४-५-१९९६) हनुमान जी की पूजा शानदार ढंग से होने लगी । पहलवानों के झुण्ड के झुण्ड उतरने लगे तथा ज्ञात-अज्ञात स्थानों के साधू-महंथ आने लगे । अनगिनत पहलवान और बदमाश दिन-रात कसरत करते तथा भोजन माँग-माँगकर पड़े रहते । अनेक अज्ञात लोग आते और सुबह ही चल देते । यह सिर्फ महेंद्र मिश्र को पता होता था कि कौन क्या है,कहाँ से आया है और कहाँ जायेगा तथा उसे क्या देना है । जो भी गरीब,असहाय एवं जरूरतमंद आता उसकी मिश्र जी खूब मदद करते । दिन-रात गीत-गवनई की महफ़िल गुलजार रहती तथा स्वयं भी छपरा,मुजफ्फरपुर,पटना,कलकत्ता तथा पश्चिम नें बनारस,ग्वालियर और झाँसी तक के गायकों के पास वे पहुँचकर गाते और संगीत में संगत करते उनकी गायन-वादन कला दिन रात निखरती गई । संगीत में उनकी रूचि बहुत गहरी थी और उनकी इस रूचि को देखकर कहा जा सकता है कि संगीत और काव्य सृजन उनके रोम-रोम में बसा था । तात्पर्य यह कि लक्ष्मी और सरस्वती की साधना चलने लगी । अनेक क्रांतिकारी युवक मिश्रवलिया आने लगे तथा मिश्र जी उनकी भरपूर आर्थिक मदद करते । गांधी जी के आह्वान पर आयोजित होने वाले धरना,जूलूस-पिकेटिंग आदि कार्यक्रमों में भाग लेने वाले सत्याग्रहियों के भोजन आदि का सम्पूर्ण व्यय भार वहन करते ।(*साक्षात्कार-श्री नथुनी मिश्र,ग्राम- संवरी बाजार । ये महेंद्र मिश्र के अभिन्न मित्र थे । दिनांक - ४ -५-१९९६) गाँव-ज्वार में घूम-घूमकर पंचायती करते । दूसरी तरफ,सम्पूर्ण उत्तरी भारत में जाली नोटों की  भरमार हो गयी । तब अंग्रेजी सरकार के खुफिया विभाग के कान खड़े हुए । उस समय छपरा मुफस्सिल थाना के अंतर्गत ही जलालपुर था । थाना को मालूम था कि नोट कहाँ छपते हैं पर थाना की मिलीभगत थी,इसीसे किसी को सीधा पता नहीं चलता था । हलिवंत सहाय का मित्र-सहायक जानकार भी थाना चुप लगा जाता था । नोट छापने के काम में चिरांद के गंगा पाठक आदि कई लोग शामिल थे । इन सबके बीच उनकी संगीत-साधना चलती रही ।  

शेष अगले अंक में ...

 

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