जरुरत है अब रंग बदलने की(भोजपुरी फिल्में)
जहाँ तक भोजपुरी फिल्मों के धडाधड आने की बात है वही एक समस्या इनके स्तरसे जुड़ी हुई तेज़ी से उभर रही है। ये समस्या इनके मेकिंग से ही जुड़ी नहीं है बल्कि इसके प्रस्तुतीकरण और कथ्य से भी जुड़ी है। 'उफान पर है भोजपुरी सिनेमा"शीर्षक के तहत मैंने एक ब्लॉग-पोस्ट पिछले महीने लिखी थी,इस पोस्ट पर प्राप्त टिप्पणियों में से एक ब्लॉगर साथी ने अपनी प्रतिक्रिया लिखी किवह सब तो ठीक है पर भोजपुरी सिनेमा गंभीर नहीं हो रहा है। उनकी बात के जवाब में मैंने यह लिखा कि अभी तो तेज़ी आई है आने वाले समय में कुछ सार्थक सिनेमा भी यह इंडस्ट्री देगा,जिसे राष्ट्रीय स्तर पर नोटिस किया जायेगा।
मगर मुझे पता है कि यह भी इतना आसान नहीं है जबकि इस इंडस्ट्री में पैसा इन्वेस्ट करने वाले राजनेता,अब तक रेलवे ,सड़क की ठेकेदारी करने वाले सफेदपोश लोग और विशुद्ध व्यापारी लोग ही हैं। हाल ही में अपने घर से लौटा हूँ । वहां भोजपुरी की दो फिल्में देखीपहली का नाम था-बलम परदेसिया और दूसरी नई फ़िल्म थी -हम बाहुबली। हम बाहुबली आज के भोजपुरी सुपरस्टार रवि किशन और दिनेश लाल यादव'निरहुआ'अभिनीत थी,वही'बलम परदेसिया ८० के दशक की सुपेर्हित फ़िल्म थी जिसमें राकेश पाण्डेय और नजीर हुसैन ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थी। अब दोनों फिल्मों का जो बेसिक फर्क था वह भोजपुरी के टोनऔर ज्यादा जमीनी होने को लेकर था और हाँ..जिस भोजपुरी समाज में गीत-संगीत की धुनें शहनाई ,सारंगी,हारमोनियम ,तबला ,झार,करताल,और गायकी में निर्गुण ,चुहल लिए था ,वह केवल 'बलम परदेसिया' में देखने को मिला जबकि अपने समय के अनुसार 'हम बाहुबली' वही बोल्लिवूडिया तेवर का. फ़िल्म ख़राब तो नहीं थी पर अपने से 'बलम परदेसिया'जैसा जुडाव पैदा करने में नाकाम थी.जबकि ध्यान देने वाली बात है कि दोनों ही इस इंडस्ट्री की पोपुलर/मेनस्ट्रीम की सिनेमा हैं.'गीत-संगीत की तो बात ही छोड़ दीजिये नए दौर के भी भोजपुरिये नौजवानों ने 'बलम परदेसिया'के 'गोरकी पतरकी रे'और'हंसके जे देखअ तू एक बेरिया हम मरी मरी जाएब तोहार किरिया '-जरुर सुन रखा है. बहरहाल,हमारी बहस का मुद्दा इस इंडस्ट्री के गंभीर होने को लेकर है,वाकई अब ऐसा समय है जब भोजपुरी सिनेमा जगत ने अपनी पहचान को पुखा और अपनी नींव को मजबूत कर लिया है तो उसे भी अब अपनी माटी के जमीनी यथार्थ को इंगित करती कुछ फिल्में बनानी चाहिए जो इस भाषिक प्रदेश की गुंडा,दबंगई,नेतागिरी जैसी स्टीरीयो टाइप इमेज से उलट कुछ अलग,कुछ अधिक सार्थक हो,जैसे बांग्ला,तेलुगु,मराठी,मलयाली,उड़िया,ने अपने कम प्रभाव क्षेत्र के बावजूद अपने क्षेत्रीय फिल्मी संसार के मेनस्ट्रीम सिनेमा मेकिंग के समानांतर खड़ी की है.प्रश्न मात्र ये नहीं है कि इसे कौन करेगा बल्कि इसको करने के लिए जिस प्रोग्रेस्सिव मानसिकता की जरुरत है उसको डेवलप किए जाने की जरुरत है. अब भोजपुरी फ़िल्म जगत ने अपने जौहर दिखाकर अपनी ताकत को जाहिर कर दिया है पर यह सही मायनों में तभी पूर्णता को पायेगा जब कोई ऐसी क्लासिक काम पैदा करके दिखा दे जो विश्व स्तर पर मार्क की जाए तो क्या कहने.सम्भव हैं कुछ समय में ऐसा हो जाए ..तब तक इंतज़ार ....
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