मेरे शहर की पहचान बनाते सिनेमाघर...
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एक कविता कभी पढ़ी थी,शायद फर्स्ट इयर में,उसकी पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार थी-
"अपने शहर में हम
अपने घर में रहते हैं,
दूसरेशहर में हमारा घर
हमारे भीतर ......."
सम्भव हैं,किआप सब में से कई इस बात ,इस लाइन से सहमत होंगे। घर से बाहर जाते हम सभी अपने साथ उस घर,गाँव ,कस्बे ,मुहल्ले, और उस शहर से जुड़े कुछ पक्के पहचानों को हम अपने साथ दूसरे शहर में भी लेकर चले आते हैं। हम शायद इस बात पर ध्यान ना देते हों पर यह सही हैं कि कुछ समय बीतने के बाद जब हम अपने शहर वापस लौटते हैं,तब हमारी आँखें अपने लगातार बदल रहे शहर के बीच अपनी उन्ही पुरानी पहचानों को ढूंढती हैं। कुछ चीज़ें बदलती हुई अच्छी लगती हैं कुछ एक टीस सी पैदा करती हैं।
सिनेमा हॉल मेरे शहर की भीड़ और आबादी के बीच एक सांस्कृतिक अड्डेबाजी का मंच देते थे।मेरे छोटे से शहर गोपालगंज में कुल-जमा पाँच छविगृह हैं। इनके नाम हैं(वरीयता क्रमानुसार -जनता सिनेमा,श्याम चित्र मन्दिर,कृष्णा टाकिज, चंद्रा सिनेमा,सरस्वती चित्र मन्दिर,और राजू मिनी टाकिज। इन सभी सिनेमा घरों में आर्किटेक्चर के लिहाज़ से कोई ख़ास फर्क तो नहीं हैं पर हाँ...इनके फ़िल्म प्रदर्शन और प्रदर्शन हेतु फ़िल्म चयन का तरीका इनकी अलग-अलग खासियत बता देता हैं।
चूँकि,मेरा शहर भोजपुरी प्रान्त का शहर हैं,तो दर्शकिया मिजाज़ फिल्मों से अधिक प्रभावित हो जाता दीखता हैं। आजकल 'निरहुआ'(भोजपुरी फिल्मों के सुपरस्टार )ने बिहारी होने का गौरव-भाव सभी में जगह रखा हैं। (इसमे राज ठाकरे से ज्यादा चंद्रा सिनेमा में लगे दिनेश लाल यादव'निरहुआ'का हाथ हैं जिसमे वह बिहारी गौरव /अस्मिता के लिए लड़ता दिखाया गया हैं। )
जनता सिनेमा (सिनेमा रोड)
जनता सिनेमा गोपालगंज शहर के डिस्ट्रिक बनने के पहले से मौजूद हैं। अभी कुछ साल पहले इसका जीर्णोधार हुआ हैं। यह टाकिज १९५८ में बना और हाल ही में इसने अपने सफलता की पचासवीं वर्षगाँठ मनाई हैं और इसके उपलक्ष्य में भोजपुरी फ़िल्म 'दूल्हा अलबेला' का आल इंडिया प्रीमियर किया गया। जनता सिनेमा is लिहाज़ से इसका शहर के लोगों में अपना रसूख बनाया हुआ हैं क्योंकि यहाँ सदा पारिवारिक फिल्में ही लगती हैं। और फैमिली वालों को यहाँ फ़िल्म देखने आने में कोई अटपटा भी नहीं लगता। एक ख़ास बात और,गोपालगंज के सभी सिनेमाघरों में फ़िल्म शुरू होने के पहले कोई गीत हाल के बाहर लगे चोंगे (माने लाउड स्पीकर)पर अपना ख़ास गीत बजाते रहते हैं ,जनता सिनेमा का पेट गीत है - 'पैसा फेंको तमाशा देखो'।
श्याम चित्र मन्दिर
इस हाल के बारे में मैं अपनी एक पोस्ट में विस्तार से लिख चुका हूँ ,जो अब 'चवन्नी छाप ब्लॉग' पर प्रकाशित हैं। यह सिनेमा हाल भी काफ़ी पुराना हैं और स्कूल्स के पास होने की वजह से भी काफ़ी मशहूर हैं,मेरे दी के करीब तो खैर हैं ही। इस हाल का अपना गीत हैं -'ई हैं बंबई नगरिया तू देख बबुआ'। इन सिनेमा घरों में इन गानों के बजने के साथ ही पब्लिक को पता लग जाता था कि अब टिकट कटनेके लिए काउंटर खुल गया हैं।इसमे भी अपेक्षाकृत पारिवारिक फिल्में लगती रही हैं और अब तो नई रीलिज़ भी आने लगी हैं। एक ख़ास बात और,कि सिर्फ़ यही एक हाल हैं जो यहाँ हॉलीवुड के डब फिल्मों और चर्चित हिन्दी फिल्मों को अपने यहाँ दिखाता हैं।
कृष्णा टाकिज (हजियापुर मोड़ )
पुरानेपन में यह हाल तीसरे नंबर पर हैं। इसके काउंटर खुलने की घोषणा 'मुकद्दर का सिकंदर' के गाने "रोते हुए आते हैं सब ,हँसता हुआ जो जाएगा..."। इस सिनेमा हाल के शहर से थोड़ा-सा बहार होने की वजह से परिवार वाले दर्शक तो कम पर गाँव से शहर आकर फ़िल्म देखने वालों और पास ही स्थित भी.एम्.इंटर कॉलेज के छात्रों की संख्या अधिक हैं। यह टाकिज सी-ग्रेड और हिंसक फार्मूला /हारर फिल्मों को अपना परदा प्रोवाईड करता हैं। आर्किटेक्चर और सीट कैपेसिटी के लिहाज़ से शहर का बढ़िया और सुंदर हॉल। ऐसी (सी-ग्रेड)फिल्मों का में अड्डा होने के बावजूद जब यहाँ 'नदिया के पार 'लगी थी तो पूरे ढाई महीने चली थी।
चंद्रा सिनेमा (बंजारी मोड़)
चंद्रा अपेक्षाकृत नया हॉल हैं और स्कूल के दिनों में हमने टैक्स फ्री प्रदर्शन होने की वजह से यहाँ पुरानी फिल्में खूब देखी हैं।यह शहर के बाहर स्थित हैं ,नेशनल हाईवे के किनारे इसलिए यहाँ पारिवारिक दर्शक ना के बराबर आते हैं। हाँ..शहर में बने और सिनेमाघरों से इसका साउंड सिस्टम सबसे बढ़िया हैं।हॉल के बिल्डिंग पर मत जाईयेगा ..ऊपर से यह आलू का गोदाम लगता हैं। पर नई-नई फिल्मों को लगाने की वजह से लोग इसका रुख करते हैं। 'तोहफा'फ़िल्म याद हैं ?जीतेन्द्र वाली ?जी हाँ..उसी का गाना 'प्यार का तोहफा ....लाया लाया लाया'-इसकी पहचान बनाता हैं।
सरस्वती चित्र मन्दिर (यादवपुर रोड)
इस सिनेमा हॉल में छोटे शहर के लिहाज़ से थोडी अधिक सुविधाएं मुहैया हैं। इसके मालिक बिहार राज्य के शिक्षा जगत में बड़े अधिकारी पोस्ट से सेवानिवृत हुए हैं और तब यह हॉल बनाया हैं। इस सिनेमा हॉल का दुखद पहलु यह हैं कि यहाँ साउथ की डब फिल्में ही अधिक लगती हैं या फ़िर पुरानी भोजपुरी फिल्में । स्टाफ के लिहाज़ से यह खाराब हॉल हैं पर सुविधाओं के लिहाज़ से अच्छा । इसका कोई ख़ास गीत नहीं हैं ,पर अधिकाँश यहाँ मिथुन के '''शिकारी"फिल्म का गाना'तू मेरा हाथी ,मैं तेरा साथी ही बजता हैं"। इस हॉल के पास जमीन भी काफ़ी हैं ,अपनी तमाम खूबियों के बावजूद अच्छे मैनेजमेंट की डिमांड करता हैं।
राजू मिनी टाकिज (पुरानीचौक)
इस हॉल के क्या कहने बस इतना जानिए कि यह अकेला ऐसा हॉल हैं जो ३५ एम्.एम् के परदे और पुराने प्रोजेक्शन मशीन से चलता हैं और इसकी बैठने की क्षमता भी १००-१२५ की हैं। यह पहले विडियो हॉल हुआ करता था और अब एक छोटा सा हॉल हैं। ख़ास बात -"अपने गुणों और फ़िल्म प्रदर्शनों के लिहाज़ से दिल्ली के कश्मीरी गेट पर स्थित'रिट्ज़'सिनेमा का छोटा भाई हैं। एक प्रबंधक,एक टिकट क्लर्क ,तीन गेटकीपरों के हवाले हैं -राजू मिनी टाकिज। और दर्शक ..(अंधेरे में ज्यादा आते हैं जनाब...)
गोपालगंज शहर का एक अपना तेवर हैं सिनेमा को लेकर । यहाँ कब कौन सी फ़िल्म पिट जाए या फ़िर कब कौन सी हिट हो जाए कहना मुश्किल हैं। सत्या, दिल चाहता हैं, जैसी फिल्में दो-एक दिनों में उतर गई थी। अब तो भोजपुरिया रंग चंहु और बिखरा पड़ा हैं .......
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