हर लिहाज़ से बेहतरीन प्रस्तुति है -"विक्रमोवर्शियम".


यूँ तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय हर वर्ष अपनी प्रस्तुतियाँ देता है मगर रंग-प्रेमियों को इसके सेकंड इयर के छात्रों की किसी क्लासिक नाट्य प्रस्तुति काइंतज़ार रहता है ,जो यह हर वर्ष देते हैं। वैसे द्वितीय वर्ष के छात्रों के पाठ्यक्रम का हिस्सा है यह संस्कृत के नाटक। बस ऐसा जान लीजिये कि इनके सही मायने में नाट्य विद्यालय के अकादमिक दर्जे से यह पहली प्रस्तुति होती है। और इन नाटकों को तैयार करने में इस विद्यालय के पास तथा इनसे जुड़े एक्सपर्ट्स की अच्छी-खासी मौजूदगी है। पर ,दो नाम ख़ास तौर से बहुत सम्मानित और इस क्लासिकीय विधा के नाटक के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है वह है-श्री के.एस.राजेंद्रन जी (जो यही एसोशियेट प्रोफेसर हैं। )और दूसरे हैं-श्री प्रसन्ना जी(इनकी प्रमुख प्रस्तुतियां हैं-'उत्तर रामचरित','आचार्य तार्तुफ़')। २ साल पहले राजेंद्रन ने अपने निर्देशन में कालिदास के महान नाटक "मालविकाग्निमित्रम"को रंगजगत में उतारा था,तब यह नाटक उस साल खेले गए कुछ बेहतरीन नाटकों में से एक माना गया था। इस वर्ष फ़िर इन्ही के निर्देशन में कालिदास के ही एक और नाटक "विक्रमोवर्शियम"द्वितीय वर्ष के छात्रों द्बारा खेला गया (आज इस नाटक की अन्तिम प्रस्तुति है )। कहना ना होगा कि ,मेरे कुछ बेहतरीन देखे गए नाटकों में से एक नाटक यह भी है।

राजेंद्रन तो इस तरह के नाटक के माहिर माने जाते ही हैं,और इस नाटक के बाद तो खैर यह दर्जा निर्विवादित रूप से उन्ही के पास रहेगा।

'विक्रमोवर्शियम'एक विधा के तौर पर त्रोटक है। संकृत काव्यशास्त्र के अनुसार ,त्रोटक एक ऐसी नाट्य विधा है,जिसमे श्रृंगारिकता अधिक मातृ में होती है और जिसके पात्रों में दैवी एवं मानुषी पात्रों का सम्मिश्रण होता है। (सन्दर्भ- विक्रमोवर्शियम ,अनुवाद-इंदुजा अवस्थी,रा.ना.वि.)'विक्रमोवर्शियम 'में उर्वशी नामक अप्सरा के प्रति राजा पुरुरवा के गहन प्रेम का वर्णन किया गया है। यह कथा 'ऋग्वेद 'से ली गई है लेकिन चरित्र निर्माण और कथा -विकास में अपने रचनात्मक कौशल से कालिदास ने इसे भव्य उंचाई प्रदान की है। पुरुरवा उर्वशी को एक राक्षस के चंगुल से मुक्त कराता है जैसा कि नाटक के शीर्षक से इंगित है। यह नाटक इन्ही दोनों के प्रेम,बिछोह,और पुनर्मिलन की कथा है।

संस्कृत नाटकों के प्रस्तुति में सबसे बड़ी चुनौती होती है उसके सही त्तारिके से दर्शक-वर्ग के बीच पहुँचा देना।क्योंकि रीयलिस्टिक नाटकों के बीच नंदी-गान से शुरू होने वाले इन स्टालाईज़ नाटकों को रोचक ढंग से पेश करना सही में बड़ी मेहनत की डिमांड करता है। इन नाटकों में किए जाने वाले अभिनय को 'नाट्यधर्मी अभिनय' कहा जाता है। इस काम को राजेंद्रन ने नृत्यांगना .कोरियोग्राफर,और समीक्षक (हिंदू में बतौर पत्रकार)अंजला राजन के सहयोग से पूरा किया और इनदोनों के सम्मिलित प्रयास के बाद जो परिणाम सामने आया वही है -विक्रमोवर्शियम। 'मालविकाग्निमित्रम'में अपने गायकी से जान फूंकने वाले अनिल मिश्रा यहाँ भी (इस बार विनी वोरा के साथ ) मौजूद थे।वेशभूषा के लिए अम्बा सान्याल तो हैं ही।हाँ..यहाँ गोविन्द पाण्डेय के संगात के बिना बात अधूरी ही रह जायेगी । कमाल का संगीत ,सहज,और सुमधुर। स्वयं उन्ही के शब्दों में कहें तो-"जिस प्रकार नाटक के प्रखर बिन्दु श्रृंगार-विरह-प्रेमोन्माद है,उसे ही सरल संगीत के माध्यम से उभारने का छोटा-सा प्रयास है,शास्त्रीयता रहे पर पूर्ण रूप से नहीं ,ऐसा विचार रहा साथ ही छात्र संगीत में ही उलझ न जाए । "

निर्देशक ने शास्त्रीय एवं लोक नृत्यात्मक मुद्राओं का उपयोग किया है संगीत भी उसी के साथ बहे ऐसी ही कोशिश है.

ऐसी प्रस्तुतियां साल में एकाध ही आती हैं ..जिन्होंने इसे नहीं देखा उन्हें इसके दुबारा खेले जाने तक इंतज़ार करना होगा ...अफ़सोस.

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