'मेरी स्वाभाविकता'-(रत्नेश विष्वक्सेन की कविता)

रत्नेश विष्वक्सेन रांची कालेज (रांची)में हिंदी के लेक्चरार हैं.अपने आसपास और खुद पर बीतती चीज़ों के ऊपर नितांत निजी तौर पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा है,वे अपनी लिखनी खासकर कविता के क्षेत्र में अपने तक ही तब रखा करते थे(मैं उनके स्नातक के दिनों की बात कर रहा हूँ)अब तो खैर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपके लेख छपते रहते हैं.प्रस्तुत है आपके लिए उनके निजी क्षणों का एक दृश्य:-
सांस की रफ़्तार /जैसे मीलों की थकान पीकर मंद हो गयी है/
बरौनियों में कुछ मलिनता/जो तय करती है अक्सर /
मेरी उदासी को.
कभी-कभी घबरा जाता हूँ,/घिग्गियों और धमकियों के बीच
,अपनी मनुष्यता से एक प्रश्न करता हूँ-उसके होने को लेकर.
नहीं बहा पाता हूँ हिचकियों में- तो कभी भरा हुआ हूँ ,हुआ ही रहकर/
काम लेता हूँ.
दर्द जैसे किसी चीज़ को ,
जो उलाहनों के बीच अटकी होकर भी,थाम लेती है मुझे/
कड़वाहट से भर उठता हूँऔर अफ़सोस के कुछ निशब्द नगमें ,
अव्यक्त पलकों को वजनी करने लगते हैं.
जब होता हूँ चिंतनशील अपराधी की तरह /
अपने सवालों के कटघरों में अनुत्तरित ,
तबलगता है कि
अपने जीवन के बाईसवें अध्याय में अब ढोंग नहीं कर पाता .
मैंने वर्ष नहीं अनुभव बिताये हैं
प्रत्येक पल की मिठास और चुभन को झुलसकर जिया है.
एक इमानदार कोशिश लगातार करता हूँ.,
जैसे जीने के लिए ,हर बार मरता हूँ.
हर रात सोने के पहले /सिरहानों के नीचे दर्द को,सहलाने के बाद/
मुझे अनुत्तरित होना पड़ता है.
हारना कोई नहीं चाहता ,मैं भी नहीं
पर जीतने के लिए ,उन्हें हराना होगा,
जिन्ही से सीखी हैं जिंदगी की बातें
तो भीतर हाहाकार उठता है.तब डर लगता है,
तब दुःख होता है.जब देखता हूँ
एक रात और बीत गयी एक दिन और जा रहा है
बहती नदी को देखकर मुग्ध होता हूँ.
हवाओं से हिलती फुनगियों पर प्रसन्न होता हूँ
पर हर रात जब,बिस्तर पर अपने सवालों सेघिरता हूँ/
तो मैं इस अनिर्णय पर /
रोता हूँ और मान लेता हूँ
मैं "स्वाभाविक" हूँ....

(यह कविता हिन्दू कालेज होस्टल में रत्नेश जी द्वारा उनके सेकंड इयर में लिखी गयी थी...उनकी पुरानी डायरी से मिली है.कविता का शीर्षक है-"मेरी स्वाभाविकता")

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