आचार्य तार्तूफ़.. रा.ना.वि.रंगमंडल की उम्दा प्रस्तुति.
'आचार्य तार्तूफ़'मशहूर फ्रांसीसी नाटककार 'मौलियर' के विख्यात हास्य चरित्र 'तार्तूफ़'का आचार्य तार्तूफ़ के रूप में भारतीय अवतरण है.सत्रहवी शताब्दी के इस नाटक को वर्तमान समय से जिस तरह से जोड़ा गया है वह वाकई कमाल का है और इसका श्रेय भी सबसे अधिक इसके निर्देशक 'प्रसन्ना'को जाता है.
इसकी कथा का सार-संक्षेप यूँ है कि ओमनाथ नाम का बनिया जो मूलतः दिल्ली का रहने वाला है लेकिन आध्यात्मिक खोज के लिए पोंडिचेरी जाता है,जहां उसकी मुलाक़ात एक अर्ध फ्रांसीसी भारतीय खस्ताहाल शख्स से होती है.यह शख्स अपने को तार्तूफ़ का वंशज बताता है मगर असल में वह एक असफल अभिनेता है.एक टेलीविजन धारावाहिक के निर्माण के दौरान उसने संस्कृत के कुछ श्लोक याद कर लिए थे.वह अपनी खस्ताहाली से निकलने की जुगत में है.पोंडिचेरी समुद्री तट पर आचार्य तार्तूफ़ ओमनाथ को अपनी जाल में फंसा लेता है और ओमनाथ को लगता है कि एक आध्यात्मिक गुरु पाने की उसकी कोशिश पूरी हुई.
मोलिअर का तार्तूफ़ सिर्फ पाखंडी है.उसका यह भारतीय अवतार आचार्य तार्तूफ़ वह आधुनिक हिन्दू स्वामी या महाराज है जो करतबबाज भगवान् सरीखा बन चुका है.सत्रहवी शताब्दी के यूरोप में उभरे मध्यवर्ग ने तार्तूफ़ के उदय की पृष्ठभूमि बनायीं थी तो.उसका 'एक में दो'यानी 'टू इन वन'भारतीय संस्करण पुराने पड़ गए सांस्कृतिक मूल्यों और आधुनिक व्यापारिक वर्ग की आक्रामकता से जन्मा है.आज भारत में जो अर्थव्यवस्था उभर रही है उसमे आचार्य तार्तूफ़ जैसे स्वामी सहज रूप से पैदा होते हैं.
यह सच है कि प्राचीन काल से ही भारत में ऐसे धर्मगुरु होते हैं जिन्होंने देश के बाहर ही भारतीय आध्यात्म का निर्यात किया.लेकिन इस नाटक का आचार्य तार्तूफ़ इक्कीसवी सदी के भारत का वह स्वामी है जो बुद्ध ,कबीर या सूरदास जैसे आध्यात्मिक पुरुषों का विलोम है.इक्कीसवी सदी का यह स्वामी आस्था को फ़िल्मी गाना बना देने वाला सफल व्यापारी है.
आस्था का दुरूपयोग इस नाटक का एक विषय है,जो दूसरा है अभिनेता की प्रदर्शन क्षमता का बेजा इस्तेमाल.नाटक यह सवाल उठाता है कि एक अभिनेता और स्वामी में क्या फर्क है?दोनों अभिनय करते हैं.दोनों ही टेलीविजन ,अखबार और तरह-तरह के विज्ञापनों से अपना प्रचार कराते हैं.दोनों पैसा.राजनैतिक सत्ता और शोहरत चाहते हैं.फिर भी एक फर्क है.रंगमंच का कलाकार इमानदार है.वह कभी अपने किरदार को वास्तविक नहीं मानता.लेकिन आज का धर्मगुरु या स्वामी अपने को आस्था का मूर्तिमान रूप मानता है.
यदि आज के स्वामी सच्चे हैं तो मध्यकाल के भक्त क्या थे?सच्चा संत कभी अपने को साबित करने के लिए करतब नहीं दिखाता.न तो ईसा ने ऐसा किया न हज़रात मोहम्मद साहब ने.सूरदास सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं रूपकात्मक रूप से भी अंधे थे.महर्षि रमण कभी अपने छोटे से कस्बे तिरुअन्नामलाई से बाहर नहीं निकले.रामकृष्ण सिर्फ एक पुजारी रहे.ये सभी सादा जीवन जीते और वन कुसुम जैसे बने रहे.आज के अति-उत्साही स्वामियों की बाजीगरी ,उनकी प्रवचन शैली और चेले बनाने में उनकी कलाकारी की तुलना सादा जीवन जीने वाले संतों से की जानी चाहिए,तब दोनों में अंतर दिखेगा और हमारे आँखों पर उनके द्वारा या खुद के द्बारा चढाया गया पर्दा हटेगा.
प्रसन्ना ने अपने निर्देशकीय नोट में आगे लिखा है-'रंगमंच अपने उत्कृष्ट रूप में हमेशा सादा और सरल होता है.इस नाटक की प्रस्तुति में हमने सादगी के सिद्धांत का पालन किया है.हमने रंगमंडल के प्रचुर भण्डार का पुनः उपयोग किया है.सिर्फ वस्त्र-सज्जा और मंच सामग्रियों जैसी भौतिक चीजों का ही नहीं बल्कि मुहावरों ,कहानियों,हाज़िरजवाबियों और धुनों का भी.'-कुल मिलाकर यह हास्य नाटक आपको विशुद्ध मनोरंजन देगा ..
(इस नाटक की समय सारणी के लिए पिछली पोस्ट देखे.)-
आलेख,परिकल्पना एवं निर्देशन -"प्रसन्ना " संगीत-काजल घोष प्रकाश-परिकल्पना-पराग सर्माह नृत्य संरचना-निधि मिश्रा *(साभार-ब्रोशर 'आचार्य तार्तूफ़")
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