जहां मौत एक सहज कविता सरीखी है-राम नाम सत्य है



रेपर्टरी (एन एस डी)का यह नाटक "राम नाम सत्य है"-मूल रूप से मराठी नाटककार 'डॉ.चंद्रशेखर फनसलकर'का लिखा हुआ है.फनसलकर के नाटकों और विशेषकर एकांकियों पर लिखते हुए 'विजय तेंदुलकर' ने लिखा है-"उनके एक-अंकीय नाटकों में थिएटर की संभावनाओं और सीमाओं,दोनों के प्रति सजगता का पता चलता है.लेकिन उनमे व्यक्त होने के लिए और भी बहुत कुछ शेष रहता है.उनके भीतर एक प्रकार की बेचैनी.एक असंतोष और आक्रोश निहित है"-इस नाटक को फनसलकर जी ने मराठी में 'खेली-मेली' के नाम से लिखा है.जिसका अनुवाद इस नाटक के निर्देशक'चेतन दातार'ने ही किया है. यह नाटक जैसा कि खुद नाटककार का कहना है-प्यार,भाईचारे और थोड़े बहुत हौंसले से मनुष्य नर्क में भी जीवन को सहज बना सकता है और आगे बढ़ रहा है.यही मनुष्य के भीतर उम्मीद और आशा का संचार करता है,जबकि आज हमारे चारों और की जो मूल्यवान और अच्छी चीज़ें हैं वो या तो ढह रही हैं या मृतप्राय हो गयी हैं.यह नाटक मनुष्य की इसी 'कभी मृत न होने वाली'प्रवृति को पकड़ने का प्रयास है."-नाटक देखते हुए एपी फनसलकर की इस बात से सहमत हो सकते हैं.अथाह दुःख के बेला में भी दर्शक उस उदासी को सहज तौर पर समझ नहीं पाता और उसे इसकी वेदना और कसक का पता नाटक के अंत पर ध्यान देने पर चलता है.इस नाटक के किरदारों के एक एक कर मरने के साथ आप स्तब्ध होते हैं यह जानते हुए कि जिस रोग से ये ग्रसित(एड्स,कैंसर आदि)हैं उससे तो इन्हें मरना ही है पर कमाल ये है कि एक किरदार के मरने की खबर के साथ चंद पलों की खामोशी फिर वही जिंदगी जिंदादिली का नाम है मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं,के साथ कहानी आगे बढती है और दर्शक भी तुंरत सामान्य अवस्था में लौट आता है. निर्देशक चेतन दातार ने अपने निर्देशकीय में यह साफ कर दिया है कि-'यह नाटक मृत्यु के बारे में नहीं है/लेकिन/यह नाटक पूरी तरह जीवन के बारे में है ..../यह नाटक एड्स के बारे में नहीं है /लेकिन यह नाटक जीवन के बारे में है,जिसे हमारे बिछडे मित्रों की अनुपस्थिति के बावजूद पूरे जोश के साथ जिया जाता है./यह नाटक मुस्कानों,कहकहों और अपने प्रियजनों के साथ बिताये प्रसन्न क्षणों के बारे में है....यह पूरा नाटक वर्तमान और भविष्य ,दुःख और हंसी,कटु और नम्र का मिश्रण है./-'नाटककार का यह कथन पूरे नाटक के एक एक परत को खोल के सामने रख देता है और एक सहज सरल ढंग से इस नाटक को सामने रखता है. ध्यान देने वाली बात ये है कि एड्स का कथानक में एक किरदार जैसा ही महत्त्व होने के बावजूद दर्शक एक उम्दा नाटक देखते हैं ना कि स्वास्थ्य मंत्रालय का ,चलो कंडोम के साथ'का कैम्पेन .थोडी सी असावधानी से ऐसा हो सकने की पूरी संभावना थी.चेतन ने इस स्थिति को कुशलता से संभाला है.इस कोशिश में नाटक कई जगह धीमा पड़ता है पर फिर भी पूरे तौर पर इस नाटक का प्रभाव दर्शकों पर पड़ता है और वे इसका भरपूर आनंद उठाते हैं.एक और ख़ास बात -मैंने जब इस नाटक को देखा था (१२ दिसम्बर २००६)तब मुख्य पात्र गोपीनाथ मिरासे की भूमिका -टीकम जोशी (जवान गोपीनाथ)और अनूप त्रिवेदी(बीमार गोपीनाथ)ने निभाई थी और रंगमंडल को जानने वाले इस बात से इनकार नहीं करेंगे कि क्या किरदार निभाया होगा दोनों ने..इसी तरह एक पात्र है जो गोपीनाथ के हंसते खेलते समूह को नौटंकी मानता है वह किरदार है-समीप सिंह द्वारा अभिनीत दामू का इस पात्र के मरने का दृश्य आपको बरबस ही उदास कर देगा यही क्षण है नाटक में जब आप हंसते हंसते एकाएक सच्चाई के कड़वे पल का अनुभव करते हैं.यहाँ मौत एक सहज कविता बन जाती है. कुल मिलाकर रंगमंडल की एक और दमदार प्रस्तुति ( नाटककार-डॉ.चंद्रशेखर फनसलकर अनुवाद,डिजाईन और निर्देशन-चेतन दातार विडियो आर्ट और अनिमेशन-ज्ञान देव वस्त्र-सज्जा-कृति वी.शर्मा संगीत-भास्कर चंदावरकर )

( यह ४ साल पहले देखी इस प्रस्तुति की त्वरित प्रतिक्रिया है,आप इस नाटक के किरदारों दामू /गोपी नाथ मिराशे /नल्लु ब्रिस्टल -आपके साथ जुड़कर बाहर आते हैं - मुन्ना कुमार पाण्डेय )

Comments

राम नाम सत्य है
बढ़िया समीक्षा की है आपने नाटक की
आभार.

Popular posts from this blog

विदापत नाच या कीर्तनिया

लोकनाट्य सांग

लोकधर्मी नाट्य-परंपरा और भिखारी ठाकुर : स्वाति सोनल