राख सरीखा गर्म और बेहतर-कश्मीर कश्मीर
अल्बेयर कामू ने 'मिथ ऑफ़ सिफिसस'में लिखा है-'मानव ऐसे सूनेपन में है,जिसका कोई उपचार नहीं है,आखिर वह अपने खोले हुए घर,जमीन की स्मृतियों तक से वंचित हो गया है यहाँ तक कि उसे अपनी धरती और आने की आशा के किसी वायदे की उम्मीद नहीं है मनुष्य और उसकी ज़िन्दगी के बीच अलगाव, कलाकार और पर्यावरण के बीच अलगाव सच में ही,अलगाव को जन्म देते हैं '
एब्सर्ड रंगमंच यथार्थ को अपने टूल्स के साथ ही ले आता है और उसी यथार्थ को फिर खारिज भी कर देता है बात चाहे,लुइगी पिरान्देलो के 'सिक्स कैरेक्टर्स इन सर्च ऑफ़ ऍन आथर 'की हो या हिन्दुस्तानी'गारबो' या ;कश्मीर कश्मीर'की ,यह सच दिखने और फिर तुरंत ही उसे आँखों के आगे से खींच ले जाने की अय्यारी इसी रंगमंच की खासियत है यह रंग-प्रयोग द्वितीय विश्वयुद्ध के बादकी स्थिति से उपजा रंगप्रयोग है यह अपने कथानकों में कोई निदान नहीं देता कश्मीर कश्मीर ऐसा ही नाटक है ,इसमें से कोई पात्र ऐसा नहीं है जिनसे आप प्रेम या घृणा कर सकें ,इनमे विचारों की एक अंतहीन पुनरावृति तथा अनिर्णय की स्थिति भी है ,जो आमतौर पर इस तरह के रंगमंच की खासियत होती है बहित संभव है कि नाटक के पारंपरिक दर्शकों को यहाँ कुछ ने मिले क्योंकि पहली बार देखने पर इस तरह के प्रयोग वाले नाटक उन दर्शकों को सारहीन ही लगते हैं फिर भी ,एब्सर्ड नाटक में मुख्य शक्ति दर्शक को सतर्क,सजग करने की है तथा प्रतीकों और रूपकों का सहारा लेकर दर्शकों में एक तरह की विश्लेषण शैली को विकसित करना भी उसका ध्येय है भी है और उसका सौंदर्य भी चूँकि,इन नाटकों का सारा एक्शन,मूल्यबोध एब्सर्ड,अपूर्ण होता है इसलिए इसमें एक ख़ास तरह की एकरसता भी पूरे नाटक में आद्योपांत बनी रहती है इसको सँभालने की जिम्मेदारी अभिनेता और निर्देशक की होती है 'कश्मीर कश्मीर' नाटक इसी तरह एक अंतहीन दृश्य को मंच पर उतारता है यहाँ कश्मीर एक होटल के रूप में सामने आता है यानि होटल, कश्मीर का रूपक है दर्शक बिना तामझाम वाले मंच पर एक बेहतर टेक्स्ट को ,उम्दा अभिनय,गतियों ध्वनि-प्रभाव और प्रकाश में मंच पर रूपायित होते देखते हैं निर्देशक मोहित तकलकर ने कश्मीर की जमीनी हालात इसी होटल का रूपक रचकर और दो हनीमून जोड़े तथा कुछ और किरदारों को एक धुंधली इमेज के साथ दिखाते हैं,यह इमेज दर्शक के मन में उभरती है जो सीधे कश्मीर के स्याह हो रहे ,हो चुके चरित्र और इसके पीछे के खेल को भी दिखाती है कुछ गैर जरुरी घटनाक्रम भी नाटक में हैं पर वह इसकी असंगति को ही दृढ करते हैं कुल मिलाकर 'कश्मीर कश्मीर'एक मेटाफर है ,जो नाटकीय घटनाक्रमों के साथ आगे बढ़ते हुए कश्मीर की हकीकत बयानी बन जाता है और जो आज के कश्मीर की वाजिब कडवी सच्चाई भी है जो कश्मीर ६० के दशक से अस्सी के अंतिम तक 'अगर कहीं जन्नत है तो...'की टेर लगाता दिखता था,वह अब इजराईल-फिलिस्तीन-गाजापट्टी,ईराक,अफगानिस्तान,जैसी जगहों के साथ अर्थसंदर्भितहोने लगा है ?-यह कितनी भयावह बात है पर सच्चाई यही है लाल देद(लल्लेश्वरी ) के गान अब कहाँ किस कश्मीर की बात है ?जरा इमेजिन कीजिये नाटक देखते-देखते अब यह कश्मीर चीनी-खरबूजे का काटा जाना जैसी ऐतिहासिक घटना की अनजाने ही याद दिलाता है,एक झुनझूने की शक्ल में ,जिसे जब मन किया बजा रहा है यद्यपि नाटक सीधे इस तरह के प्रश्नों को नहीं उठाता पर होटल में हनीमून मनाने आये जोड़े से लेकर,होटलकर्मियों की हरकतें ,रह रहकर आते विजुअल्स तथा व्वाईस ओवर से यह साफ़ तौर पर उभरता है कई कहानियों के इर्द-गिर्द चक्कर काटकर यह नाटक एक अंतहीन-सा नैराश्य,पीछे रह गयीं विकृत छवियाँ ,'जो कश्मीर की आम छवियों से अलग और अजीब तौर पर भयानक हैं,'कई अनसुलझे,अनुत्तरित प्रश्नों का सुर्ख और स्याह प्रभाव छोड़ता है खुद मोहित तकलकर का बयान है-'यह उस बाहरी सच के उद्देश्य पर सवाल खड़े करती है,जो कश्मीर के आतंरिक हालात को समझने के लिए बनायीं गयी है राज्य की शांति को निगल रहे कई मुद्दों से जुड़ने और उनकी झलक देखने के लिए यह नाटक एक सेतु है '-हालांकि यह सेतु उतना मजबूत नहीं बन सका है पर सेतु की मूल प्रकृति जो है उसमे यह फिट बैठता है एब्सर्ड नाटक अपने चरित्र में एकदम निश्चित नहीं होते,कश्मीर कश्मीर'इसका अपवाद नहीं है यह नाटक बीच में धीमा पड़ता जरुर है पर उत्कृष्ट अभिनय इसे तुरंत ही संभाल लेता है और यह नाटक होटल कश्मीर कश्मीर को विखंडित करके 'हाट एज ऐश 'यानि राख सरीखा गर्म के रूप में सामने ला देता है,क्या यह स्थिति जानी-पहचानी नहीं लगती ? 'कश्मीर कश्मीर' भले एक नायब मास्टर पीस ने बन सका हो पर अपने फ़ार्म में बेहतरीन प्रस्तुति रही
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