एक पत्नी और माँ की पाती-'जगदम्बा'
यह नाटक किसी मिथकीय चरित्र वाली जगदम्बा का नहीं बल्कि एक वैसी महिला का आत्म है, जिसने जिंदगी भर सबके लिए बा और एक आदर्श पत्नी का धर्म निभाया पर अपने वैयक्तिक जीवन में पति और बेटे के बीच के दुधारी तलवार पर चलती रही यह नाटक गाँधी जी की कस्तूरबा,भारतीय जनमानस की बा और अपने अनथक सामाजिक,राजनैतिक प्रयासों और लड़ाई में जगदम्बा की आपकबूली है,जो अब तक हमारी नजरों से परे थाआधुनिक इतिहास के अध्येता इस बात को जानते हैं कि कस्तूरबा मात्र गाँधी जी की सहचरी नहीं थी बल्कि एक वैसी साथिन के रूप में थी जिसने हर कदम पर पति का साथ तो दिया पर उनका अन्धानुकरण नहीं किया और गाँधी जी के देशहित के प्रयासों में हर कदम पर साथ रही पर एक माँ भी होने के नाते अपने बेटों हरिलाल और मणिलाल से अपने जुड़ाव को पृथक नहीं कर पायीं अपने टेक्स्ट में रामदास भटकल का यह नाटक एक पत्नी का अपने महान बनते जाते पति के अंदरूनी पारिवारिक चरित्र के अनछुए पहलुओं पर एक बारीक नज़र और उसी की डायरी है नाटक में बा के कैरेक्टर को रंगमंच की वरिष्ठ अभिनेत्री 'रोहिणी हठांगरी'ने जीवंत किया रोहिणी जी इस किरदार में रच बस गयी हैं,दर्शकों को रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गाँधी तो याद ही होगी बहरहाल,यह नाटक मराठी में खेला जाता रहा है पर हिंदी में यह पहली प्रस्तुति रही ,इस वजह से कई बार संवादों की तारतम्यता भंग हुई और दर्शकों तथा मंच का सम्बन्ध टूटते-टूटते बचा तो इसकी एकमात्र वजह रोहिणी जी का अभिनय ही रहा पर इन सबके अलावे भी एक बड़ी कमी इसकी समयावधि भी रही,जिससे कई बार यह नाटक खींचता सा लगा नाटक के कई प्रसंग हटाये जा सकने वाले प्रतीत हुए,बहुत संभव है कि आगे जब यह नाटक खेला जाये तो यह कमी भी दूर हो जाये 'जगदम्बा'कथावाचन शैली का नाटक है- एक माँ की चिंता के केंद्र में उसकी संतान हमेशा रही है पर एक तरफ पति का आदर्शवादी जीवन भी था,ऐसे में बा की स्थिति त्रिशंकु सरीखी रही और यह वह कारण है,जो गाँधी जी को मोहनदास तक खींच लाता है हर मोर्चे पर सफल रहने वाले नैतिक गाँधी जी अपने ही बेटे के मोर्चे पर विफल रहे,बा के चरित्र से यह बात और खुलकर सामने आती है कि,अपने नियमों को कड़ी से अपने बच्चों पर लागू करना बापू के 'बापू'बने रहने की धारणा का फल था जीवन के छोटे-छोटे सत्याग्रही प्रसंगों को अपने दैनिक व्यवहार में बा का व्यक्तित्व सहधर्मिणी से एकदम अलग तरीके से उस आम महिला का भी नज़र आता है,जिसने अपने पति की उस बात को तो गांठ बाँध कर निभाया कि देश के लिए जेल जाना एक पाठशाला जाने सरीखा है पर इस पाठ को पढ़ते-पढ़ते परिवार की नांव किस ठाँव चली गयी उसकी भी पड़ताल है नाटक का पाठ बार-बार इस बात की और इशारा करता है कि गाँधी जी गाँधी ना होते गर बा न होती जगदम्बा का नाट्यालेख न केवल बा के जीवन को चिन्हित करता है बल्कि भारतीय राजनीति और गाँधी जी के संघर्षपूर्ण जीवन के विविध पडावों को एक सरल,सुघड़ पत्नी के नज़र से बयान भी करता है,ऐसे में नाटक का पाठ लंबा हो जाना स्वाभाविक है,पर रंगमंच की भी एक समस्या है कि अगर मंच पर घटनाओं का कौतुहल और तनाव बरकरार नहीं रहता तो दर्शक ऊबने लगता है,यह नाटक भी इसी का शिकार हो गया डायरी शैली का कथावाचन और उम्दा अभिनय भी नाटक को धीमा कर देते हैं तो इसकी एकमात्र वजह यही है बावजूद इसके नाटक के अंतिम दृश्यों में माँ-बेटे का संवाद सहसा ही गाँधी जी के इस उपेक्षित और तथाकथित नालायक बेटे हरिलाल के प्रति सहानुभूति पैदा कर जाता है पर कहते हैं न कि रंगमंच एक गतिमान स्थिति में ही कथा कहे तो दर्शकीय प्यार पाता है,जगदम्बा इससे तो थोड़ी दूर जाती है पर संवेदनशील विषयों को परखने वाले सामाजिकों को यह नाटक पसंद आया
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