रूपम पाठक के पक्ष में


झारखण्ड कैडर के एक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी पी.एस.नटराजन के यौन-उत्पीडन की शिकार सुषमा बड़ाईक नामक महिला इन दिनों न्याय पाने के लिए जगह-जगह अर्जियां लगाती फिर रही है.पिछले दिनों यह फरियादी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के यहाँ भी आई क्योंकि झारखण्ड में उसकी फ़रियाद सुनने वाला नहीं है.उसका कहना है कि गुमला की पुलिस उसे झारखण्ड आर्मी नामक उग्रवादी संगठन की सरगना साबित करने पर तुली है.वह अपनी लाख कोशिशों के बावजूद झारखण्ड सरकार के दरबार में किसी से मिल नहीं पाई है,तब जाकर उसने नीतीश के जनता दरबार में अर्जी लगायी.यद्यपि इस सन्दर्भ में बिहार सरकार ने सुषमा के आवेदन को झारखण्ड सरकार तथा केन्द्रीय गृह मंत्रालय को अपने आग्रह-पत्र के साथ अग्रसारित कर दिया है.अब ऐसे में यदि सुषमा की अर्जी नहीं सुनी गयी तो क्या मालूम एक और रूपम पाठक केस सामने आ जाये ? इस चिंता की वाजिब वजहें हैं.मान लीजिये कि अगर सुषमा की बात सच्ची हैऔर उसकी फ़रियाद कहीं नहीं सुनी जा रही है तब ऐसे में उसके पास क्या चारा बचेगा?हालांकि संयुक्त बिहार के राजद सरकार में चम्पा विश्वास काण्ड लोगों से भूला नहीं होगा.सरकारी तंत्र अपने लाल-बत्ती और पावर के घमंड में न-जाने कितने ही दलितों-दमितों और अशक्त आम लोगों की अस्मत से खिलवाड़ करता रहा है,यह सिर्फ बिहार या झारखण्ड का ही मामला नहीं है.और हमारा सामाजिक-ढांचा ऐसा है कि इसमें औरत की जाति ही निर्धारित नहीं है वह हर जगह एक सी स्थिति में है-भोग्या. हमारा सामंती समाज उसे एक ऑब्जेक्ट से अधिक कुछ नहीं समझता.रूपम पाठक का मामला इस तरह की कथा-बयानी है.जिस औरत ने मृतक विधायक के खिलाफ पहले पुलिस रिपोर्ट दर्ज करायी और दुबारा उसे वापस लेने पर मजबूर हुई उसके पीछे कोई सोच-समझी साजिश नहीं बल्कि उस जगह पर अपने परिवार की हिफाजत ही रही होगी इसमें कोई दो-राय नहीं.बिहार सरकार के भाजपा कोटे के मंत्री महोदय तो यह कहते नज़र आये कि रूपम पाठक एक ब्लैकमेलर थी.यह कितनी वाहियात बात है.आज तक यह खबर सुनने में नहीं आई कि किसी ब्लेकमेलर ने अपने शिकार को मार दिया.ब्लेकमेलर नाम का जीव खुद एक ऐसी कुत्सित मानसिकता से ग्रस्त होता है.जहाँ वह अपने से अधिक प्यार करता है और उसीके लिए सारा खेल रचता है.ऐसे में कोई भी ब्लेकमेलर अपने सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को नहीं मारता.हाँ यह सुनने में या फिल्मों में देखने में आता है कि ब्लेकमेलर से आजिज़ आ शिकार ही उसे मार या मरवा दता है.भला कभी बाड़ ने खेत को चर लिया,या खा लिया ऐसा सुनने में आया है ? एक औरत जब खुले-आम जब किसी की हत्या खासतौर पर जब वह एक रसूखदार व्यक्ति हो तब उसके भीतर उतर कर कम-से-कम उस पीड़ा को समझना चाहिए जहाँ उसने अपने घर की दहलीज़ से बाहर आकर हत्या करने जैसा कदम उठाया.प्रथम दृष्टया ही रूपम पाठक का मामला साफ़ दीखता है.ख़बरों के मुताबिक रूपम ने हत्या के बाड़ और घायलावस्था में अस्पताल ले जाते वक़्त यह लगातार कहा है कि-'मुझे मार दो,फांसी दे दो मैन जीना नहीं चाहती '-क्या अब भी कुछ कहने की बात रह जाति है.यदि रूपम पाठक बदनीयत वाली या ब्लेकमेलर महिला होती तो जाहिर तौर पर कभी सामने से वार नहीं करती ना ही इस मानसिकता के लोग करते हैं.अस्सी के दशक में एक बहुचर्चित फिल्म आई थी-'प्रतिघात'.इस फिल्म की नायिका अपने ऊपर हुए अत्याचारों से सब दरवाजों को खटखटाती है पर हमारा भ्रष्ट-तंत्र उस औरत को न्याय नहीं दिला पाता.नायिका अपनी अंततः हाथ में कुल्हाड़ी लिए मंचासीन विलेन को जो संयोग से एक विधायक ही है,काट देती है.रूपम पाठक के केस में प्रतिघात का याद आना अनायास ही है.क्योंकि जब भी व्यवस्था में बैठे लोग जनता को अपनी रैयत-मातहत समझेंगे और अपने क्षेत्र की महिलों को अपनी प्रापर्टी समझेंगे ऐसे दृश्य बार-बार घटित होंगे.मृतक विधायक से एक बड़ा तबका है जो सहानुभूति नहीं रखता.बावजूद उस व्यक्ति का वाहन दुबारा चुना जाना जनता के ऊपर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है.इधर एक नयी खबर आई है कि रूपम पाठक के समर्थन में बिहार की कै महिला नेत्रियों ने पार्टी लाइन से परे जाकर आवाज़ उठाई है.एपवा,जनवादी महिला मोर्चा,जदयू,लोजपा जैसी पार्टियों की महिलाएं एक साथ एक मंच पर आ खड़ी हुई हैं.पटना विश्वविद्यालय के छात्रों ने रूपम पाठक को न्याय दिलाने और इस मामले को विधायक की मौत से भी पहले सबके सामने लेन वाले पत्रकार नवलेश पाठक के लिए एक मानव-श्रृंखला बनायीं है.आईसा और इंकलाबी नौजवान सभा के छात्रों की यह पहल वाकई काबिले-तारीफ़ है.इस बीच मुख्यमंत्री ने यह घोषणा कर दी है कि मामले की सीबीआई जांच करायी जाएगी तब तक स्थानीय पुलिसिया जांच जारी रहेगी.यह वाकई चिंताजनक बात है.सीबीआई जांच होने तक इस मामले से कम-से-कम लोकल पुलिस को तो परे ही रखना चाहिए क्योंकि यह केस के हित में अत्यधिक जरुरी है.बिहार के समाजवादी बुद्धिजीवी तबके को जो आकंठ नीतीश गुणगान में आज डूबा है उसे भी खुलकर हर प्रकार से रूपम पाठक के साथ आना होगा और यह उसका नैतिक फ़र्ज़ भी है,kam-से-कम इस वर्ग से नैतिकता की उम्मीद हमें है ही.व्यवस्था कभी जनता फ्रेंडली नहीं होती वह उसका दिखावा करती है.वह एक कम करती है दस घोषणाएं भी जो कभी पूरी नहीं होनी है और खुद की पीठ भी खुद ही थपथपा लेती है.यह नहीं होता तो आज रूपम पाठक को ऐसा कदम उठाने को मजबूर न होना पड़ता क्या पता अगर आज भी नहीं चेते तो कल कोई और खड़ा होगा,क्योंकि दिनों-दिन दूषित होती जाती राजनीति का चेहरा भी वह नहीं रहा जो वह हमेशा जनता को दिखता रहता है.आज रूपम जैसी महिला-शक्ति सामने आई भले ही परिस्थितियाँ अलग थी तो कल कोई सुषमा आ जाएगी,उत्तर-पूर्व में मनोरमा का मामला और सशस्त्र बलों का अत्याचार पुरानी बात नहीं महिलाएं ऐसे ही सामने आएँगी.रूपम ने तो हत्या की है पर ऐसे कई उदाहरण हैं कि सत्ताधीशों की लपलपाती जिव्हा ने कईयों को आत्महत्या पर मजबूर कर दिया और बदले में कुछ महीने की सजा पाई.इस कमीनी व्यवस्था का चेहरा अभी उसी क्रूर मुस्कान के साथ हमारे इर्द-गिर्द चक्कर मार रहा है.
(जनसत्ता में दिनांक-१९.०१.२०११ को प्रकाशित )
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