हर्षिल डायरी - 1





जाना मंदाकिनी वाली गंगा के इलाके में हर्षिल डायरी : भाग -
बिना किसी बड़ी योजना के यूँ ही Joginder ने उस दिन तैयार कर लिया कि कम से कम चीला होकर आ जाएँगे. लेकिन चीला में दो रातों बाद ऋषिकेश के पहाड़ों ने ऊपर आने के लिए डाक देना शुरू किया और वह यह काम पहले दिन की सुबह से ही करने लगे थे. उन्हें पता था कि इस आदमी (मैं ही) के भीतर बेचैनी बैठी रहती है कि गढ़वाल हिमालय के दुर्गम इलाकों की झलक ना ली तो क्या उतराखंड आए. मुझे हमेशा लगता है हरिद्वार ऋषिकेश आना गढ़वाल आना नहीं बस गंगा दर्शन और डुबकी, संध्या आरती के लिए आना भर ही है यह मुहाने से लौटना है इसलिए ऋषिकेश से उपर चढ़ते लगता है किसी रोगी को ऑक्सीजन दे दिया गया हो. नीत्शे बबवा कह गया था 'मैं यायावर हूँ और मुझे पहाड़ों पर चढ़ना पसंद है.' लेकिन मेरे लिए भी सच यही है. चीला से आगे जाने की बात सुन फारेस्ट गेट के टपरी वाले चाय दूकान पर पंडित जी ने पूछा था कहाँ की ओर ? अनमने ढंग से पहले कहा - सोचा है खिर्सू लेकिन हम हर्षिल (गंगोत्री) चल दिए. वैसे हर्षिल वाली बात सुनकर पंडित जी ने वही कहा होता जो खिर्सू सुनकर मुस्कुराकर कहा था - शुभास्तु पंथान : . और हम हर्षिल चल दिए. मेरे ख्याल से जोगी, ऋचा और कौस्तुभ के लिए तो ठीक था कि वह नज़ारे देख देख प्रफुल्लित हो रहे थे पर कसम से यही मौका होता है जब पहाड़ों में ड्राईविंग करने वाले मेरे जैसे मैदानी लोग अपनी किस्मत खूब कोसते हैं और दूसरों की किस्मत से रस्क खाते हैं क्यूंकि सामने नज़र रखते और हर मोड़ पर सतर्क रहते आधा सौन्दर्यबोध यूँ ही हवा रहता है लेकिन बाकी के आधे में मन कहता है -चरन्वं मधु विन्दति, चरन्स्वादुमुदुम्बरम् - चलता हुआ मनुष्य ही मधु पाता है, चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है- सो चरैवेति चरैवेति - सो मैं भी चलता रहा आखिर पहाड़ी राजा विल्सन के इलाके के सेबों की मिठास और 2500 मीटर की ऊँचाई के देवदारों, सेबों के बागान और महार और जाट रेजिमेंट के बीच से गंगा को नीचे देखते जाने की कबसे तमन्ना थी जो एक बार बीए में पूरी हुई सो अब तक बदस्तूर जारी है. फिर मेरे लिए कैशोर्य अवस्था से वह पोस्ट ऑफिस भी तो एक बड़ा आकर्षण रहा है जहाँ गंगा हँसते हुए पोस्टमास्टर बाबू को यह कहते हुए निकल जाती कि पहाड़ों की डाक व्यवस्था अजीब है. हाय! राजकपूर ने भी क्या खूब जगह चुनी. गंगा और बंगाली भद्र मानुष नरेन के मिलन बिछुरन वाले प्रेम कथा के लिए. इस जगह से मुफीद जगह क्या ही होती. किस्से पर वापसी - उत्तरकाशी से हर्षिल की ओर चढ़ते हुए 4 से थोड़ा ऊपर का समय हो या था तिस पर अक्टूबर और पहाड़ों में अँधेरा वैसे ही तेजी से उतर जाता है और यदि वह पहाड़ी रास्ता उतरकाशी से हर्षिल-गंगोत्री रूट पर हो, शाम ढल रही हो, सर्दियों का उठान हो और गाड़ी चलाने वाला एक ही व्यक्ति हो तो आगे की सोच कर चलना ही ठीक रहता है. हमने थोड़ी देर उत्तरकाशी से थोड़ा ऊपर रूककर चाय और मैगी गटकने के बाद तय किया कि जिस तरह ऋषिकेश से यहाँ तक आए हैं उस लिहाज से आगे 3 साढ़े 3 घंटे में हर्षिल पहुँचकर ही आराम करेंगे. मुझे कुछ ख़ास थकान नहीं लग रही थी और सच कहूँ तो मन के कुहरे में वह बात साफ़ थी कि अब रुकें तो हर्षिल ही, सो चल पड़े. शाम उतरने लगी थी,वातावरण में ठंडक बढ़ रही थी और गाड़ी के भीतर इसका अहसास हो रहा था. सब खुश थे पिकू महाराज भी एक गहरी नींद मार जाग चुके थे और उनके लिए मैंने उनके पसंद के गीतों को चला दिया था. इस पूरे रास्ते में मैंने अतिउत्साह में एक गलती की थी जिसका खामियाजा भुगतना पड़ा लेकिन वह खामियाजा भी एक नया और अलग अर्थ में सुखद याद बन गया. सुकी मठ हर्षिल से थोड़ा पहले है और उससे पहले आईटीबीपी का कैम्प है. यह जगह हर्षिल से भी ऊँची है और इस गाँव में भी सेब खूब होता है पर इस जगह कोई यात्री नहीं रुकता वह या तो हर्षिल , धराली या सीधे गंगोत्री ही रुकता है जो यहाँ से 2 घंटे आगे है. इसी सुकी मठ गाँव से 2 किमी नीचे कार ने एकाएक धुआँ देकर चुप्पी साध ली बेचारी सुबह से लगातार टेढ़े मेधे ऊँचे नीचे अच्छे ख़राब रास्तों पर चल रही थी वह उस सांझ, वीरान जगह पर मुँह फुला झटके बैठ गई - मैंने ध्यान नहीं दिया था उसका हीट लेवल बढ़ा हुआ था और मैं बतकुच्चन में बिना ध्यान दिए गाड़ी को तेजी से राम तेरी गंगा मैली के इलाके में खींचे जा रहा था. गाड़ी का वाटर पम्प पता नहीं कैसे टूट गया था. सारा कूलेंट पानी स्वाहा. थोड़ी देर बाद बगल से गुजरते डम्पर वाले ने देखा कि शहरी बाबु लोग किसी दिक्कत में हैं तो उस संकरे रस्ते पर आकर उसने अपना बेशकीमती आधे घंटे का समय हमारे हिस्से खर्च किया. किस्मत अच्छी थी कि ठीक बगल में एक पहाड़ी नाला ऊपर से आता हुआ तेजी से नीचे खाई में चिल्लाता हुआ गंगा में उतर रहा था. उसके पानी से कार का गुस्सा ठंडा किया गया और अब गाड़ी इस हालत में आ गयी थी कि सुक्की तक चली जाए पर आईटीबीपी कैम्प तक चढ़ते चढ़ते गाड़ी ने अजीब चीखें मारनी शुरू की और हर्षिल गंगोत्री जाने वाले समझ सकते हैं कि उस रास्ते पर सुकी गाँव के पास निहायत खड़ी चढ़ाई है, जैसे मसूरी में लैंढूर से चार दूकान की ओर जाते हुए का रास्ता. खैर कैम्प के आगे बलवंत सिंह जी की चाय की दूकान लगभग बंद हो ही गई थी पर हमें देख उनकी उम्मीद बढ़ी कि थोड़ी देर और रुक गया तो कुछ आमदनी हो जाएगी. उनकी उम्मीद गलत नहीं थी. हमनें दबा के मैगी और ग्लास भर निम्बू चाय पी, दूकान के जलतीनुमा आग में सम्भावना तलाशते हुए सुकी में रुकने का मन बना लिया. वहाँ होटल जैसा कुछ नहीं था कमरे मिल गए थे जिसमें शौचालय था और खाना बनाने का रिवाज होटल वाले ने सीखा नहीं था-रात पूरे चाँद की थी. उस पर फिर कभी लेकिन कार के खड़ी किए जाने की जगह से रुकने की जगह भी 3 किमी थी पर सुविधा यह थी कि कमरे के बाहर आकर सामने झाँकों तो ताज़ी झरी सफेदी ओढ़े हिमालय उसके पैताने उत्तरकाशी, महादानव टिहरी बांध, देवप्रयाग को जाती भागीरथी और उसके आगे जाती गंगा तो दाहिनी ओर नीचे दिखते हरियल छत के कैम्प के कोने में बलवंत जी के टपरी के मुहाने अगले दिन आने 70 किमी दूर नीचे उत्तरकाशी से आने वाले मिस्त्री की और उपकरणों की उम्मीद मे हमारी डिजायर 1040.और हाँ उस जगह हमने मज़बूरी में शरण ली और तीन दिन रुके उसी जगह ख़ुशी ख़ुशी जी वही जगह जहाँ रात को खाना भी खुद ही बनाने में होट-ल वाले भले युवक के परिवार का सक्रिय सहयोगी बनना पड़ता था .इतनी दफे गंगोत्री गया हर्षिल गया दो बार आगे गोमुख और तपोवन तक गया पर हर्षिल इ थोड़ा ही पहले पड़ते इस जगह पर नजर ही नहीं जाती थी. सच ही तो है जीवन में कई बड़ी दूर की आसन्न खुशियों और चीजों के फेर में हम छोटी और पास की चीजों को कैसे अनदेखा कर देते हैं अनजाने ही ...(क्रमशः)


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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कुम्भ की पावनता से निखरी ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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