जिसकी जुबां उर्दू की तरह थी दिल हिंदुस्तान की तरह - टॉम आल्टर सन्दर्भ : किताब / कमलेश के मिश्र

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 सत्यजीत रे की फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' का एक दृश्य है जिसमें एक अंग्रेज सिपाही वेस्टन (टॉम आल्टर) अपने अधिकारी जेम्स आउटरेम (रिचर्ड एटनबरो) के सामने एक शे'र पढता है - 'सदमा न पहुंचे कोई मेरे जिस्म-ए-ज़ाद पर/आहिस्ता फूल फेंको मेरे मज़ार पर/हर चाँद ख़ाक में था/मगर ता-फलक गया/धोखा है आसमान का/मेरे गुबार पर'. इस केवल एक दृश्य ने टॉम आल्टर के प्रति वह तमाम किरदारी नफरत ख़त्म कर दी, जो राहुल रॉय, अनु अग्रवाल वाले 'आशिकी' में उनके द्वारा निभाए खडूस वार्डन से पैदा हुई थी. टॉम आल्टर ने केवल अँगरेज़ किरदार ही नहीं निभाए बल्कि उन्होंने मौलाना, गाँधी, ज़फर, ग़ालिब, साहिर, टैगोर से लेकर टीवी के दूरदर्शन के दिनों के लोकप्रिय सीरियल 'जूनून' में केशव कलसी का किरदार भी बेहद खूबसूरती से निभाया है. राज्यसभा टीवी के 'संविधान' कार्यक्रम में उनके द्वारा निभाए गए मौलाना के किरदार को कौन भूल सकता है. वह 'गोरा' खालिस हिन्दुस्तानी था. हिंदुस्तान के बंटवारे के साथ उसका परिवार भी बंट गया, दादा-दादी पाकिस्तान चले गए और उनका परिवार हिंदुस्तान में रह गया. मसूरी के इस 'बुरांश' फूल की जिंदगी रोचक किताब सरीखी है.    

शुरूआती दिन, परिवार, राजपुर और क्रिकेट  
1916 में अमेरिका के ओहायो से मद्रास आया एक मिशनरी परिवार बरास्ते इलाहबाद, जबलपुर, सहारनपुर राजपुर (मसूरी के नजदीक) आकर बस गए. यहीं 22 जून 1950 में उनकी पैदाईश हुई. उनका दाखिला मसूरी के ही प्रतिष्ठित वुडस्टॉक स्कूल में हुआ और बाद में टॉम आल्टर कुछ समय के लिए येल यूनिवर्सिटी, अमेरिका भी गए पर जल्दी ही लौट कर वापिस आ गये और थोड़े समय स्कूल शिक्षण और पत्रकारिता भी की. क्रिकेट के दीवानों को शायद याद हो वह टॉम आल्टर ही थे, जिन्होंने क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर का पहला टीवी इंटरव्यू लिया था. टॉम आल्टर खुद भी बेहतर क्रिकेट खिलाडी थे और टेस्ट क्रिकेट के शौकिन भी.   

https://www.youtube.com/watch?v=oez4TSdZvJI   सचिन और टॉम अल्टर का लिंक

राजेश खन्ना और आराधना ने बनाया अभिनेता टॉम आल्टर  
राजेश खन्ना की 'आराधना' वह फिल्म थी, जिसने हरियाणा के छोटे से कस्बे जगाधरी के एक स्कूल सेंट टॉमस के स्पोर्ट्स टीचर को अभिनय के लिए पहले एफटीआई, पुणे और फिर मुंबई ले आई. उनके अभिनय गुरु रोशन तनेजा थे. बाद में अपने पुणे फिल्म संस्थान वाले साथियों नसीरुद्दी शाह और बेंजामिन गिलानी के साथ मिलकर उन्होंने 'मोटले' नामक थियेटर ग्रुप भी बनाया. शायद यही वजह थी कि थियेटर की ट्रेनिंग ने उन्हें किरदारों में टाइपकास्ट होने से बचाया और इसी कारण जो विशिष्टता उनके हिस्से आई वह बॉब क्रिस्टो को नसीब नहीं हुई. हालाँकि दोनों की तुलना ठीक नहीं. बहरहाल, टॉम साहब की रंगमंचीय शिक्षा ने उन्हें बुनियादी तौर पर मजबूत अभिनेता बनाया और रामायण वाले रामानंद सागर की फिल्म 'चरस'(1975) से उनके फ़िल्मी करियर का आरम्भ हुआ जो लगभग 300 से कुछ अधिक फिल्मों तक जारी रहा. इसमें हॉलीवुड की 'वन नाईट विद द किंग' भी शामिल है. दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में मौलाना नाटक, जिसमें वह एकल अभिनय किया करते थे, के दौरान स्टेज की बत्तियाँ तकरीबन 8-10 मिनट के लिए गुल हो गयीं मंच पर मौलाना बने टॉम साहब ने अपना अभिनय जारी रखा, उनकी दिल-ओ-दिमाग में समाती आवाज़ मंच से अँधेरे में भी गूंजती रही और इम्प्रोवाइजेशन ने नाटक के कथ्य के प्रवाह को कम न होने दिया. खचाखच भरे सभागार का एक दर्शक टस से मस न हुआ संभवत: यह रंगमंचीय इतिहास की भी एक अनूठी घटना थी. यह एक अभिनेता टॉम आल्टर की शक्ति थी. बाद के दिनों में, आम जनता को अलग-अलग साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उनके उर्दू और हिन्दुस्तानी की ताकत का भी अंदाजा हुआ.
  
राज्यसभा टीवी के एक कार्यक्रम में साक्षात्कार देते हुए टॉम आल्टर ने कहा "मैं राजेश खन्ना का भक्त हू और नसीरुद्दीन शाह की एक्टिंग का दीवाना". राजेश खन्ना की फिल्म आराधना से प्रभावित होकर ही वह अभिनय में आए थे.

मशीनें नहीं किताबें
जो टॉम आल्टर हमेशा कहा करते हैं कि लोगों के पास बतकही खत्म होती जा रही है, वह सब मशीनों के गुलाम बनते जा रहे हैं. वह मशीनों के खिलाफ नहीं थे, बल्कि उनकी चिंता के केंद्र में आदमी के जीवन में मशीनों के बेतरह समाते जाने और उस वजह से आदमी का अपने आसपास से कटते जाने की पीड़ा ही थी. इसलिए टॉम आल्टर के कभी कोई मोबाइल फ़ोन नहीं रखा अलबत्ता कोई न कोई किताब उनके हाथों में जरुर रहती थी. चाहे वह यात्रा में हों, शूटिंग में हो या आराम में किताबें हमेशा उनकी साथी रही. टॉम आल्टर के मसूरी के दिन ऐसे ही होते थे, चाय कि गुमटियों में जमे लोगों के साथ उन्हीं की तरह समा जाना और कुछ अपनी कहना और कुछ उनकी सुनना उनके जीवन की आपकमाई थी. वर्ष 2009 भारत सरकार ने उनको अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक 'पद्मश्री' से सम्मानित किया था.    
     
टॉम आल्टर की अंतिम शॉर्ट फिल्म 'किताब'
टॉम आल्टर की अभिनीत शॉर्ट फिल्म 'किताब' केवल टॉम साहब की अंतिम शॉर्ट फिल्म भर नहीं है बल्कि अनजाने ही यह टॉम आल्टर के कहन का सिनेमाई विस्तार है. इसमें टॉम आल्टर एक बूढ़े लाईब्रेरियन की भूमिका में जो किताबों से पाठकों की होती जा रही दूरी और जीवन में गैजेट्स की घुसपैठ का मूक दर्शक है और इस बदलते मौसम की भीतरी पीड़ा उस लाईब्रेरियन में हैं. वह लाईब्रेरियन जिसने एक दौर वह भी देखा है जब लाइब्रेरी गुलज़ार रहा करती थी और एक दौर वह भी है जहाँ बंद अलमारी के शीशों से कैद काट रही हैं और उसका पाठक उनसे दूर अपने एक नए माध्यमों के जाल में व्यस्त होता जा रहा है. लेकिन किताब गैजेट्स की खिलाफत के बारे में नहीं है. इसकी बड़ी संभावना बन सकती थी. वह गुलज़ार की कविता 'किताबें झांकती है बंद अलमारी के शीशों से/बड़ी हसरत से तकती हैं/महीनों अब इनसे मुलाक़ात नहीं होती' सरीखी परदे पर उतरती जाती है और प्रभाव में ओ हेनरी की कहानियों सरीखा असर डालती है. 'किताब' को कलकता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, बैंकाक के 9फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट शॉर्ट फिल्म का पुरस्कार ले चुकी है. इसके अलावा कमाल बात यह है कि टॉम आल्टर को इस फिल्म के लिए फील द रील फिल्म फेस्टिवल ब्रिटेन में सेकेण्ड बेस्ट एक्टर चुना गया है. अभी यह लिस्ट लंबी है. किताब लोगों के बीच जा रही है रोम, लॉस एंजिल्स से हैदराबाद तक इसकी ऑफिसियल इंट्री हो चुकी है. टॉम साहब 'किताब' के साथ आते हैं.  

https://www.youtube.com/watch?v=HcFaA9hRjOc किताब शार्ट फिल्म टीजर लिंक

किताब (शार्ट फिल्म) के निर्देशक कमलेश के. मिश्रा से बातचीत
प्रश्न : आप मीडिया में सक्रिय थे, फिर अचानक किताब बनाम गैजेट्स जैसे मुद्दे पर अचानक फिल्म बनाने का आईडिया कहाँ से आया? वह भी टॉम साहब के साथ?
कमलेश : काफी समय तक अखबार, उसके बाद टेलीविजन और फिर कुछ फिल्मों के लिए काम करने के बाद मुझे ऐसा लगा कि जो कुछ मेरे अपने आसपास के दैनिक जीवन की महसूसी और भोगी हुई कहानियाँ है, उसको दुनिया के सामने लाने के लिए सिनेमा वाजिब माध्यम है और इसकी कुलबुलाहट पिछले तीन-चार सालों से ज्यादा ही बढ़ गई थी. मैंने एक फीचर फिल्म पर काम करना शुरू किया लेकिन इसी बीच मुझे एक लाइब्रेरी में शूट करने का मौका मिला. उस लाइब्रेरी में मैंने बरबस ही किताबों को उलटना-पलटना शुरू किया तो मैंने पाया कि जो भी किताब मैं उठाता उसी पर धूल जमी हुई थी. यही हाल अधिकांश वहाँ की कुर्सियों और टेबल का भी थी. जबकि वह एक इंस्टिट्यूट था और वहाँ चार-पाँच सौ बच्चे पढ़ रहे थे. मुझे लगा कि लाइब्रेरी की उन किताबों से उन बच्चों का कोई वास्ता नहीं था. मुझे उन किताबों की कराह उनकी पीड़ा महसूस होने लगी. मुझे लगा कि यह केवल किसी एक लाइब्रेरी या समाज की समस्या नहीं बल्कि ग्लोबल इश्यु बनता जा रहा है. फिर इस आईडिया को अपने कुछ मित्रों से शेयर किया और फिल्म बनाने की बात की फिर किताब आज सामने है. जहाँ तक सब्जेक्ट की बात है यह समस्या केवल किताबों के नहीं पढ़े जाने की ही नहीं है यह बस गैजेट्स के प्रभाव में उनसे दूर होते जाने की बात है. चूँकि इन स्थितियों से हम सब जुड़े हैं तो विषय की संवेदना को उभारना मेरे लिए आसान हो गया.

इस शार्ट फिल्म में कोई संवाद नहीं हैं केवल टॉम आल्टर साहब का अभिनय और पुस्तकालय का दृश्य. आपको एक पल को यह नहीं लगा कि आज जबकि शोर ही ध्यानकर्षण का बड़ा जरिया बना हुआ है तब ऐसा प्रयोग ख़राब निर्णय भी हो सकता है?
कमलेश : शोर के समय में खामोश फिल्म बनाना चुनौती तो थी पर मैंने सोचा नहीं था कि बिना डायलाग वाली फिल्म बनाऊंगा. मेरी फिल्म में तीन ही किरदार हैं एक लाइब्रेरियन, दूसरा पाठक और तीसरा किताबें. लाईब्रेरी का माहौल शांत होता है वहाँ मूक संवाद किताबों से होता है तो मेरी फिल्मों के ये तीनों किरदार संवाद कर रहे हैं लेकिन विचार विनिमय खामोशी से हो रहा है. मैंने उसी माहौल को अपने रचना का आधार बना लिया और उसी के अनुसार फिल्म बनती गई. मैंने ऐसा सोच के नहीं किया बल्कि जैसे मैंने कैमरे से इन तीनों किरदारों से मिलना शुरू किया, मौखिक संवाद की जरुरत ख़त्म होती चली गई. मेरे पास टॉम साहब जैसा दक्ष अभिनेता थे, अन्य कुशल कलाकार थे, मुझे यकीं था कि ये केवल अपनी भंगिमाओं से, बिना बोले ही इस कथा को दर्शकों तक संप्रेषित कर देंगे. इसका बड़ा फायदा हुआ कि एक ग्लोबल इश्यू भाषा की सीमाओं से बाहर निकल गई. अब यह सबकी हो गई और ग्लोबली मुझे इसका फायदा भी मिल रहा है.

टॉम आल्टर से किस तरह मिलना हुआ और उनकी इंट्री इस किरदार में कैसे हुई?
कमलेश : मुंबई में सुलभ संस्थान के लिए एक म्यूजिकल फीचर की एंकरिंग मैंने टॉम साहब से करवाई थी. उनसे मेरी वह पहली मुलाकात थी. मैंने जब टॉम साहब का संपर्क सूत्र खोजा तो पता चला कि टॉम साहब सिर्फ ई-मेल पर मिलेंगे अन्यथा लैंडलाइन पर उनसे बातचीत उनकी उपलब्धता के अनुसार हो सकती है. रात को अक्सर वह जवाब देते थे सो मैंने मेल किया और उनका जवाब भी आ गया. वह बिना मोबाइल के ही रहते थे. तो उनसे जब भी आगे मुलाकात हुई मैं देखता था कि वह हमेशा एक किताब हाथ में लिए रहते थे. कमाल तो यह कि मैंने देखा कि शूट के बीच में समय मिलने पर वह चुपचाप एक तरफ अपनी किताब में लौट जाते थे तो किताब के लाइब्रेरियन की इमेज में टॉम साहब ही थे, क्योंकि जब मैंने उनको यह कॉन्सेप्ट सुनाया था उसी समय चहककर उन्होंने कहा था कि कमलेश यह फिल्म जरुर बननी चाहिए. टॉम साहब केवल इस प्रोजेक्ट से जुड़े ही नहीं बल्कि मसूरी में सारी सुविधाएँ भी मुहैया करवाईं. इसके बनने में टॉम साहब का बड़ा योगदान है और मुझे अफ़सोस है कि मैं इस फिल्म को टॉम साहब को दिखा नहीं पाया. यह मेरा दुर्भाग्य ही रहा कि यह अभी पोस्ट प्रोडक्शन में ही थी कि टॉम साहब हम सबको छोड़ कर चले गए. शूट के दौरान यह तय हुआ था कि इस फिल्म का एक स्पेशल शो टॉम साहब के होमटाउन मसूरी में किया जाएगा. टॉम साहब के जीते-जी तो यह न हो सका लेकिन हम जल्दी ही एक शो मसूरी में करने जा रहे है. क्योंकि अगर यह फिल्म इस तरह बन पायी है तो उसकी वजह टॉम साहब ही रहे हैं. 

किताब तो अब हर तरफ जा रही है. अलग-अलग फिल्म फेस्टिवल्स में इसकी लगातार उपस्थिति बढती जा रही है. कोई ऐसा वाकया भी हुआ है जो इसके ग्लोबल प्रभाव को स्थापित कर सके.
कमलेश : बैंकॉक में नाइन फिल्म फेस्ट 31 मई को जब किताब का पहला शो हुआ तो क्लोजिंग डे के दिन काफी महिलाएँ अपने बच्चों के साथ आयीं हुई थी जिन्होंने फेस्टिवल मैनेजर से यह रिक्वेस्ट की थी कि कोई इंडियन फिल्म आयीं है जो बच्चों को गैजेट्स की जगह किताबों के बारे में बता रही रही तो उस फेस्टिवल की क्लोजिंग फिल्म के तौर पर किताब को फिर से दिखाया गया और ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था जिसमें अधिकांश माएँ अपने बच्चों के साथ आई हुई थी. मुझे ख़ुशी हुई कि किताब का कम से कम यह इम्पैक्ट तो पड़ रहा है.

प्रश्न : टॉम साहब के साथ की कोई याद जिसे आप शेयर करना चाहें.
कमलेश : टॉम साहब के साथ मसूरी में बिताया समय ही मेरी उपलब्धि है. मुझे वहीं पहली बार पता चला कि वह व्यक्ति जो पद्मश्री अवार्डी हैं, केवल देसी ही नहीं इंटरनेशनल फ़िल्में की हैं. उनके लिए मसूरी का हर घर अपना था. कोई बड़े होने का गुमान नहीं किसी चाय की टपरी पर बैठ जाना. लोग उनके पास यूँ ही आ जाते थे, फिल्म की बैटन के लिए नहीं बल्कि अपने आसपास की बातों के लिए और कमाल यह कि वह किसी मदद मांगने के इरादे से नहीं घर के एक सदस्य में दुःख सुख बतियाने के लिए आते थे. वही पता चला कि रस्किन बांड और टॉम साहब मसूरी की उपलब्धियाँ हैं. उन्होंने मनुष्य होने की मिठास के मायने जी कर सिखा दिया. केवल बात नहीं बल्कि वह क्षणों में जीते भी थे. मुकम्मल मनुष्य जो सर से पाँव तक केवल मुकम्मल इंसानियत से भरा हुआ था. उनसे और क्या सीखते.   
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टॉम आल्टर को स्टेज फोर का स्किन कैंसर था और बीते वर्ष (2017) में सितम्बर के 29वें दिन इस बेमिसाल एक्टर ने अपने किरदार से एक्जिट ले ली. टॉम साहब ता-उम्र हमारी पीढ़ी को किताबों से प्यार करना सिखाते रहे, आसपास से जुड़ना सिखाते रहे, परदे पर उनकी सक्रिय उपस्थिति हमेशा के लिए 'किताब' में दर्ज हो गई. टॉम साहब का एक वाईस ओवर 'किताब' में है, जो इसके अंतिम हिस्से में उभरता है, वह उनके जीवन दर्शन का आईना भी हैं - 'तुम्हारे साथ रहना चाहती हैं किताबें/बात करना चाहती हैं/ किताबें बिल्कुल मेरी तरह हैं/अल्फाज़ से भरपूर मगर खामोश'. साहिर ने पं. नेहरु की मौत पर लिखा था, मैं उन पंक्तियों को टॉम साहब के लिए उधार लेता हूँ - 'जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती/जिस्म के मर जाने से इंसान नहीं मरा करते'.
आज पद्मश्री टॉम आल्टर साहब का बर्थडे हैं. हैप्पी बर्थडे टॉम साहब. आपकी जुबान उर्दू की तरह थी और शख्सियत पूरे हिंदुस्तान के माफिक.                 
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