जिसके लिए तवायफों ने अपने गहने उतार दिए : पूरबी सम्राट महेंद्र मिश्र

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मुजफ्फरपुर के एक कोठे पर गाने वाली ढेलाबाई की बड़ी धूम थी, सारण के बाबू हलिवंत सहाय के लिए महेंद्र मिश्र ने उसका अपहरण कर लिया. बाद में अपने इस कर्म पर उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ और फिर उन्होंने ढेलाबाई कि मदद में कोई कसर नहीं छोड़ी.
घर, परिवार और गायक का उभार
पुरबी सम्राट महेंदर मिसिरजी के बिआह रुपरेखा देवी से भईल रहे जिनका से हिकायत मिसिर के नाव से एगो लईका भी भईल, बाकी घर गृहस्थी मे मन ना लागला के कारन महेन्दर मिसिर जी हर तरह से गीत संगीत कीर्तन गवनई मे जुटि गईनी । बाबुजी के स्वर्ग सिधरला के बाद जमीदार हलिवंत सहाय जी से जब ढेर नजदीकी भईल त उहा खातिरमुजफ्फरपुर के एगो गावे वाली के बेटी ढेलाबाई के अपहरण कई के सहाय जी के लगे चहुंपा देहनी । बाद मे एह बात के बहुत दुख पहुंचल आ पश्चाताप भी कईनी संगे संगे सहाय जी के गइला के बाद, ढेला बाई के हक दियावे खातिर महेन्दर मिसिर जी कवनो कसर बाकी ना रखनी !
महेंद्र मिश्र का जन्म छपरा के मिश्रवलिया में आज ही के दिन 16 मार्च 1886 को हुआ था. महेंद्र मिश्र बचपन से ही पहलवानी, घुड़सवारी, गीत, संगीत में तेज थे. उनको विरासत में संस्कृत का ज्ञान और आसपास के समाज में अभाव का जीवन मिला था जिसमें वह अपने अंत समय तक भाव भरते रहे. इसीलिए उनकी रचनाओं में देशानुराग से लेकर भक्ति, श्रृंगार और वियोग के कई दृश्य मिलते हैं. भोजपुरी साहित्य में गायकी की जब-जब चर्चा होती महेंद्र मिश्र की पूरबी सामने खड़ी हो जाती है. शोहरत का आलम यह कि  भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के जिस-जिस हिस्से (फिजी, मारिशस, सूरीनाम, नीदरलैंड, त्रिनिदाद, ब्रिटिश गुयाना) में गिरमिटिए गए महेंद्र मिश्र की गायकी उनके सफ़र और अपनी मिटटी का पाथेय बनकर साथ गई. साहित्य संगीत के इतिहास में विरला ही कोई होगा जो एक साथ ही शास्त्रीय और लोक संगीत पर गायन-वादन में दक्षता भी रखता हो और अपने आसपास के राजनीतिक-सामाजिक हलचलों में सक्रिय भागीदारी रखता हो और पहलवानी का शौक भी रखता हो. महेंद्र मिश्र का जीवन रूमानियत के साथ भक्ति का भी साहचर्य साथ-साथ का रहा है. इस कवि का मित्रभाव ऐसा था कि उन्होंने अपने जमींदार मित्र हलिवंत सहाय के प्रेम के लिए मुजफ्फरपुर से ढेलाबाई का अपहरण करके लाकर मित्र के यहाँ पहुंचा दिया. हालांकि अपने इस काम के पश्चाताप स्वरुप वह ढेलाबाई के साथ अंत तक हलिवंत सहाय के गुजरने के बाद भी रहकर निभाते रहे. उनके जमींदारी के मामलों की देखरेख करते रहे. महेंद्र मिश्र के जीवन के इतने रंग है कि आप जितना घुसते जाते हैं लगता है एक और छवि निकल कर सामने आ रही है. गोया कोई फिल्म देख रहे हों. पहलवानी का कसा लम्बा-चौड़ा बदन, चमकता माथा, देह पर सिल्क का कुर्ता, गर्दन में सोने की चेन और मुँह में पान की गिलौरी ऐसा आकर्षक था महेंद्र मिश्र का व्यक्तित्व.       
                                                                                                                                                                                                                                    लोककलाकार भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र
भोजपुरी के भारतेंदु कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र समकालीन थे. लोकश्रुति यह भी है कि भिखारी ठाकुर के साहित्यिक सांगीतिक गुरु महेंद्र मिश्र ही थे. भिखारी ठाकुर पर शुरुआती दौर के किताब लिखने वाले भोजपुरी के विद्वान आलोचक महेश्वराचार्य जी के हवाले से कहा गया है कि 'जो महेंद्र न होते तो भिखारी ठाकुर भी नहीं पनपते. उनकी एक एक कड़ी लेकर भिखारी ने भोजपुरी संगीत रूपक का सृजन किया है. भिखारी की रंगकर्मिता, कलाकारिता के मूल महेंद्र मिश्र हैं जिनका उन्होंने कहीं नाम नहीं लिया है. महेंद्र मिश्र भिखारी ठाकुर के रचना-गुरु, शैली गुरु हैं. महेंद्र मिश्र का 'टुटही पलानी' वाला गीत भिखारी ठाकुर के 'बिदेसिया' की नींव बना.' महेंद्र मिश्र के अध्येता सुरेश मिश्र इस संदर्भ में भिखारी ठाकुर के समाजियों 'भदई राम', 'शिवलाल बारी' और 'शिवनाथ बारी' के साक्षात्कार का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि 'पूरी बरसात भिखारी ठाकुर महेंद्र मिश्र के दरवाजे पर बिताते थे तथा महेंद्र मिश्र ने भिखारी ठाकुर को झाल बजाना सिखाया था.' इतना ही नहीं महेंद्र मिश्र को पुरबी का जनक कहा जाता है और भिखारी ठाकुर के नाटकों में प्रयुक्त कई कविताओं की धुन पूरबी ही है. लोकसंस्कृति के अध्येताओं को अभी इस  ओर अभी और शोध करने की आवश्यकता है. 
स्वतंत्रता संग्राम और महेंद्र मिश्र
महेंद्र मिश्र का समय गाँधी के उदय का समय है. बिहार स्वतंत्रता सेनानी संघ के अध्यक्ष विश्वनाथ सिंह तथा इस इलाके के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्री तापसी सिंह ने अपने एक लेख में यह दर्ज किया है कि महेंद्र मिश्र स्वतंत्रता सेनानियों की आर्थिक मदद किया करते थे. इस सन्दर्भ में अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मलेन के चौदहवें अधिवेशन, मुबारकपुर, सारण 'इयाद के दरपन में' देखा जा सकता है. सारण के इलाके के कई स्वतंत्रता सेनानी और कालांतर में सांसद भी (बाबू रामशेखर सिंह और श्री दईब दयाल सिंह) ने अपने यह बात कही है कि महेंद्र मिश्र का घर स्वंतंत्रता संग्राम के सिपाहियों का गुप्त अड्डा हुआ करता था. उनके घर की बैठकों में संगीत और गीत गवनई के अलावा राजनीतिक चर्चाएँ भी खूब हुआ करती थी. उनके गाँव के अनेक समकालीन बुजुर्गों ने इस बात की पुष्टि की है कि महेंद्र मिश्र स्वाधीनता आन्दोलन के क्रांतिकारियों की खुले हाथों से सहायता किया करते थे. आखिर उनके भी हिस्से वह दर्द तो था ही कि 
"हमरा नीको ना लागे राम गोरन के करनी 
 
रुपया ले गईले,पईसा ले गईलें,ले सारा गिन्नी 
 
ओकरा बदला में दे गईले ढल्ली के दुअन्नी'
पूरबी सम्राट महेंद्र मिश्र के साथ यह अजब संयोग ही है कि उनकी रचनाएँ अपार लोकप्रियता के सोपान तक पहुँची. भोजपुरी अंचल ने टूट कर उनके गीतों को अपने दिलों में जगह दी किन्तु साहित्य इतिहासकारों की नजर में महेंद्र मिश्र अछूत ही बने रहे. किसी ने उनपर ढंग से बात करने की कोशिश नहीं की. अलबता एकाध पैराग्राफ में निपटाने की कुछ सूचनात्मक कोशिशें हुई जरुर. रामनाथ पाण्डेय लिखित भोजपुरी उपन्यास 'महेंदर मिसिर' और पाण्डेय कपिल रचित उपन्यास 'फूलसुंघी' पंडित जगन्नाथ का 'पूरबी पुरोधा' और जौहर सफियाबादी द्वारा लिखित 'पूरबी के धाह' लिखी है. प्रसिद्ध नाटककार रवीन्द्र भारती ने 'कंपनी उस्ताद' नाम से एक नाटक लिखा है जिसे वरिष्ठ रंगकर्मी संजय उपाध्याय ने खूब खेला भी है. भोजपुरी मैथिली के फिल्मकार नितिन नीरा चंद्रा भी महेंद्र मिश्र पर एक फिल्म की तैयारी में हैं. रत्नाकर त्रिपाठी ने आर्ट कनेक्ट में 'टू लाइफ ऑफ़ महेंद्र मिश्र' नाम से के शानदार लेख लिखा है. इधर जैसी कि सूचना है बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् जल्दी ही महेंद्र मिश्र की रचनावली का प्रकाशन करने जा रहा है.
नकली नोट की छपाई का किस्सा और गोपीचंद जासूस
महेंद्र मिश्र का कलकत्ता आना जाना खूब होता था. तब कलकता न केवल बिहारी मजदूरों के पलायन का सबसे बड़ा केंद्र बल्कि राजनीतिक गतिविधियों की भी सबसे उर्वर जमीन बना हुआ था. कलकते में ही उनका परिचय एक अंग्रेज से हो गया था जो उनकी गायकी का मुरीद था. उसने लन्दन लौटने के क्रम में नकली नोट छापने की मशीन महेंद्र मिश्र को दे दी जिसे लेकर वह गाँव चले आए और वहाँ अपने भाईयों के साथ मिलकर नकली नोटों की छपाई शुरू कर दी और सारण इलाके में अपने छापे नकली नोटों से अंग्रेजी सत्ता की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोडनी शुरू कर दी. महेंद्र मिश्र पर पहला उपन्यास लिखने वाले रामनाथ पाण्डेय ने अपने उपन्यास 'महेंदर मिसिर' में लिखा है कि 'महेंद्र मिश्र अपने सुख-स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि शोषक ब्रिटिश हुकूमत की अर्थव्यवस्था को धराशायी करने और उसकी अर्थनीति का विरोध करने के उद्देश्य से नोट छापते थे'. इस बात की भनक लगते ही अंग्रेजी सरकार ने अपने सीआईडी जटाधारी प्रसाद और सुरेन्द्र लाल घोष के नेतृत्व में अपना जासूसी तंत्र को सक्रिय कर दिया और अपने जासूस हर तरफ लगा दिए. सुरेन्द्रलाल घोष तीन साल तक महेंद्र मिश्र के यहाँ गोपीचंद नामक नौकर बनकर रहे और उनके खिलाफ तमाम जानकारियाँ इकट्ठा की. तीन साल बाद 16 अप्रैल 1924 को गोपीचंद के इशारे पर अंग्रेज सिपाहियों ने महेंद्र मिश्र को उनके भाइयों के साथ पकड़ लिया. गोपीचंद की जासूसी और गद्दारी के लिए महेंद्र मिश्र ने एक गीत गोपीचंद को देखते हुए गाया -
पाकल पाकल पानवा खिअवले गोपीचनवा पिरितिया लगा के ना,
हंसी हंसी पानवा खिअवले गोपीचानवा पिरितिया लगा के ना
मोहे भेजले जेहलखानवा रे पिरितिया लगा के ना
गोपीचंद जासूस ने जब यह सुना तो वह भी उदास हो गया. वह भी मिश्र जी के प्रभाव में तुकबंदियाँ सीख गया था. उसने भी गाकर ही उत्तर दिया -
नोटवा जे छापि छपि गिनिया भजवलs ए महेन्दर मिसिर
ब्रिटिस के कईलs हलकान ए महेन्दर मिसिर
सगरे जहानवा मे कईले बाडs नाम ए महेन्दर मिसिर
पड़ल बा पुलिसिया से काम ए महेन्दर मिसिर
सुरेश मिश्र इस घटनाक्रम के बारे में लिखते हैं - 'एक दिन किसी अंग्रेज अफसर ने जो खूब भोजपुरी और बांग्ला भी समझता था,इनको 'देशवाली' समाज में गाते देखा । उसने इनको नृत्य-गीत के एक विशेष स्थान पर बुलवाया । ये गए । बातें हुईं ।वह अँगरेज़ उनसे बहुत प्रभावित हुआ । इनके कवि की विवशता,हृदय का हाहाकार,ढेलाबाई के दुखमय जीवन की कथा,घर परिवार की खस्ताहाली तथा राष्ट्र के लिए कुछ करने की ईमानदार तड़प देखकर उसने इनसे कहा- तुम्हारे भीतर कुछ ईमानदार कोशिशें हैं । हम लन्दन जा रहे हैं । नोट छापने की यह मशीन लो और मुझसे दो-चार दिन काम सीख लो । यह सब घटनाएँ 1915-1920  के आस-पास की हैं.'
पटना उच्च न्यायालय में महेंद्र मिश्र के केस की पैरवी विप्लवी हेमचन्द्र मिश्र और मशहूर स्वतंत्रता सेनानी चितरंजन दास ने की. महेंद्र मिश्र की लोकप्रियता का आलम यह था कि उनके गिरफ्तारी की खबर मिलते भी बनारस से कलकत्ता की तवायफों ने विशेषकर ढेलाबाई, विद्याधरी बाई, केशरबाई  ने अपने गहने उतार कर अधिकारीयों को देने शुरू कर दिए कि इन्हें लेकर मिश्र जी को छोड़ दिया जाए. सुनवाई तीन महीने तक चली. लगता था कि मिश्र जी छूट जाएँगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उन्होंने अपना अपराध कबूल लिया. महेंद्र मिश्र को दस वर्ष की सजा सुना दी गई और बक्सर जेल भेज दिया गया. महेंद्र मिश्र के भीतर के कवि, गायक ने जेल में जल्दी ही सबको अपना प्रशंसक बना लिया और उनके संगीत और कविताई पर मुग्ध होकर तत्कालीन जेलर ने उन्हें जेल से निकाल कर अपने घर पर रख लिया. वहीं पर महेंद्र मिश्र जेलर के बीवी बच्चों को भजन एवं कविता सुनाते तथा सत्संग करने लगे. वहीं महेंद्र मिश्र ने भोजपुरी का प्रथम महाकाव्य और अपने काव्य का  गौरव-ग्रन्थ "अपूर्व रामायण" रचा. मुख्य रूप से पूरबी के लिए मशहूर महेंद्र मिश्र ने कई फुटकर रचनाओं के अलावा महेन्द्र मंजरी, महेन्द्र बिनोद, महेन्द्र मयंक, भीष्म प्रतिज्ञा, कृष्ण गीतावली, महेन्द्र प्रभाकर, महेन्द्र रत्नावली , महेन्द्र चन्द्रिका, महेन्द्र कवितावली आदि कई रचनाओं की सर्जना की.
प्रेम की पीर और प्रेम में मुक्ति का कवि-गायक
यह ज्ञात तथ्य है कि कलकत्ता, बनारस, मुजफ्फरपुर आदि जगह की कई तवायफें महेंद्र मिश्र को अपना गुरु मानती थी. इनके लिखे कई गीतों को उनके कोठों पर सजी महफ़िलों में गाया जाता था. पूरबी की परंपरा का सूत्र पहले भी दिखा है लेकिन उसकी प्रसिद्धि महेंद्र मिश्र से ही हुई. चूँकि मिश्र जी हारमोनियम, तबला, झाल, पखाउज, मृदंग, बांसुरी पर अद्भुत अधिकार रखते थे तो वहीं ठुमरी टप्पा, गजल, कजरी, दादरा, खेमटा जैसी गायकी और अन्य कई शास्त्रीय शैलियों पर जबरदस्त अधिकार भी था. इसलिए उनकी हर रचना का सांगीतिक पक्ष इतना मजबूत है कि जुबान पर आसानी से चढ़ जाते थे सो इन तवायफों ने उनके गीतों को खूब गाया भी. उनकी पूरबी गीतों में बियोग के साथ-साथ गहरे रूमानियत का अहसास भी बहुत दिखता है जो कि अन्य भोजपुरी कविताओं में कम ही दिखायी देती हैं.
अंगुरी मे डंसले बिआ नगिनिया, ए ननदी दिअवा जरा दे/ सासु मोरा मारे रामा बांस के छिउंकिया, सुसुकति पनिया के जाय, पानी भरे जात रहनी पकवा इनरवा, बनवारी हो लागी गईले ठग बटमार /  आधि आधि रतिया के पिहके पपीहरा, बैरनिया भईली ना, मोरे अंखिया के निनिया बैरनिया भईली ना / पिया मोरे गईले सखी पुरबी बनिजिया, से दे के गईले ना, एगो सुनगा खेलवना से दे के गईले ना, जैसे असंख्य गीत में बसा विरह और प्रेम का भाव पत्थर पिघलाने की क्षमता रखता है. कहा तो यह भी जाता है कि महेंद्र मिश्र के गीतों में जो दर्द है वह ढेलाबाई और अन्य कई तवायफों की मजबूरी, दुख:दर्द के वजह से भी है. ढेलाबाई से महेंद्र मिश्र की मित्रता के कई पाठ लोक प्रचलन में हैं लेकिन एक स्तर पर यह घनानंद की प्रेम की पीर सरीखा है. इसलिए महेंद्र मिश्र के यहाँ भी प्रेम में विरह की वेदना की तीव्रता इतनी है कि दगादार से यारी निभाने की हद तक चला जाता है. ढेलाबाई और महेंद्र मिश्र के बीच के नेह-बंध को ऐसे देख सकते हैं. वैसे भी प्रेम में मुक्ति का जो स्वर महेंद्र के यहाँ हैं वह लोकसाहित्य में विरल है. कहते हैं उनके गायकी से पत्थर पिघलते थे, सारण से गुजरने वाली नदियाँ गंगा और नारायणी की धार मंद पड़ जाती थी. यह गायकी का जोर था महेंद्र मिश्र का, लेकिन अफ़सोस भोजपुरी का यह नायब हीरा अपने जाने के सात दशकों में किंवदन्तियो और मिथकों सरीखा बना दिया गया है और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमने अपने लोक का इतिहास संरक्षित करने में हमेशा से उपेक्षा का भाव रखा. हमारे पास राजाओं और शासकों का इतिहास है लेकिन लोक ह्रदय सम्राटों का नहीं. महेंद्र मिश्र इसी उपेक्षा के मारे ऐसे ही कलाकार हैं. 16 मार्च 1886 से शुरू हुई यात्रा से 26 अक्टुबर 1946 को ढेलाबाई के कोठा के पास बने शिवमंदिर में पूरबी के इस सम्राट ने दुनिया को अलविदा कह दिया. उसका दिल बड़ा था लेकिन उसके लिए दुनिया ही छोटी थी. उन्होंने अपनी प्रेम गीतों में दगादार से भी यारी और प्रेम में स्वतंत्रता का भाव विशेषकर स्त्रियों के पक्ष में का भाव पैदा किया. भोजपुरी के लगभग सभी गायकों शारदा सिन्हा से लेकर चन्दन तिवारी तक ने महेंद्र मिश्र के गीतों को अपनी आवाज़ दी है. कहते हैं होंगे कई कवि-गायक महेंद्र मिश्र जैसा कोई दूजा न, हुआ न होगा.   
महेंद्र मिश्र के गीतों के वेबलिंक्स
https://www.youtube.com/watch?v=qXuSvy6ragI
https://www.youtube.com/watch?v=j8Ev5v07rH0
https://www.youtube.com/watch?v=rYhEKhkkWho

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