अमेरिकन लाठी का जोर(सीनाजोरी)और भारतीय आनंद जान की बदकिस्मती...


मशहूर फैशन डिजाईनर आनंद जान के केस के लूपहोल्स के बारे में मैंने अपने कुछ दिन पहले के पोस्ट में जिक्र किया था,कि किस तरह से अमेरिकन न्याय-व्यवस्था आनंद के मामले में दोहरा चरित्र अपना रही है और बिना उसके पक्ष को सुने-समझे सज़ा दे चुकी है.यहाँ तक कि जिस आनंद ने लाई डिटेक्टर तक पास कर लिया फिर इस स्थिति में भी उसे सज़ा किस आधार पर दे दी गयी,इतना ही नहीं जब juror missconduct होने की भी बात सामने थी ,तब जबकि रेप किट निगेटिव निकला,उस स्थिति में भारतीय फैशन डिजाईनर आनंद को जेल में अमेरिकन सिस्टम ने डालकर अपना छुपा हुआ नस्ली चेहरा उजागर किया.सबसे अफसोसजनक स्थिति हमारे भारतीय सरकार की है जिसने पता नहीं किस पिनक में इस केस को एक नज़र देखने की भी जेहमत नहीं उठाई.क्या उसके लिए हमारे होने (भारतीय नागरिक)के कोई मायने नहीं हैं या फिर हम केवल वोट बैंक या जातिवादी,धार्मिक चेहरे भर है,जिनका जब चाहे इन्ही कुछेक पैरामीटर्स पर हमेशा यूज कर लें?
आज के दैनिक भास्कर की खबर है- "अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि-इरान उन तीन अमेरिकियों को फ़ौरन रिहा करदे,जिन्हें नौ माह पहले उसने हिरासत में लिया था.इरान ने पिछले साल कुर्दिस्तान होते हुए पहुंचे शेन बाउर,जोस फैटल,और सराह सोर्ड को अवैध प्रवेश करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था.क्लिंटन ने कहा कि उनके परिजनों और बच्चों की शारीरिक और भावनात्मक हालात को लेकर हम चिंतित हैं"-वाह!कितने बढ़िया शब्द हैं ना-ये 'भावनात्मक और शारीरिक हालात?या फिर परिवार की दिक्कतें?हंसी आती है कि इन सबकी बात कौन कर रहा है.दरअसल अमेरिका अपनी ढपली और अपना ही राग शुरू से अलापता रहा है.और २०० वर्षों की मानसिक तथा शारीरिक गुलामी सहने के बाद भी सफ़ेद चमड़ी का प्रभाव हमारे भीतर से गया ही नहीं है.यह दादागिरी अमेरिका की ही नहीं बल्कि सभी पश्चिमी मुल्कों की रही है.कुछ समय पहले भी एक खबर थी कि जासूसी के आरोप में पकडे जाने के बाद भी मलेशिया से दो अमेरिकन पत्रकारों को खुद वहाँ के विदेश मंत्री लेकर गए.यह क्या है?क्या हम इसे अपने नागरिकों के लिए बाहर-भीतर दोनों जगहों पर खडा होकर उनके अच्छे-बुरे हर कामों को सही ठहराने की अमेरिकन कोशिश या संरक्षण,या दादगिरी है?शायद यही तो है,तभी तो याचक की भूमिका में खड़े हमारे देश की रहनुमाओं को इतनी आज़ादी नहीं मिल पा रही कि आनंद वाले केस के फेयर ट्रायल की ही बात ओबामा के आगे उठाया जाता.क्या वाकई अमेरिकन सत्ता इस हद तक हम पर,हमारे नेताओं पर हावी हैं?
चलिए अब कुछ हमारे देश के संस्कृति और व्यवहार की भी हो ही जाये.कहते हैं कि हम एक बहुत धनि साझी संस्कृति को लेकर च रहे हैं.प्राणियों पर दया ,जीव रक्षा,आदि आदि सिद्धांतों को मानते हैं.इतना ही नहीं 'वसुधैव कुटुम्बकम'का नारा देने वाला देश अपने पारिवारिक माडल के लिए भी दुनिया में माना जाता है.इतना रिच कल्चर,इतनी समृद्ध विरासत.सब कुछ फीलगुड.अमेरिका जैसे मुल्क को जिस पर दुनिया के कई छोटे-बड़े देशों पर हजारों जिंदगियों को हलाक़ कर देने का इलज़ाम है,औए इस इलज़ाम की नंगी सच्चाई हम सबने देखी है.वह मुल्क कहता है कि मेरे नागरिकों की गिरफ़्तारी से हम चिंतित हैं और मांग करते हैं कि उन्हें तुरंत रिहा किया जाये.क्योंकि उनके परिवार की भावनात्मक स्थिति को हम समझ रहे हैं.मेरा मानना है कि इसमें भी अमेरिका का कोई गणित होगा पर मुझे इससे क्या?इतना फीलगुड होने के बावजूद एक गलत काम के लिए हमारे एक भी नुमाईंदे ने विरोध का स्वर क्यों नहीं उठाया कि आनंद निर्दोष है,या फ्रेश ट्रायल करो,या ऐसा करना अमेरिका के लिए नैतिकता का भी प्रश्न है.अरे हम तो अपनी समृद्ध विरासत में अपने को दुनिया में सर्वोपरि मानते हैं कि हम विश्वगुरु थे/हैं या ..पता नहीं क्या क्या?फिर भी हमारे किसी नुमाईंदे को यह क्यों नहीं दिख रहा कि एक निर्दोष को जो अपने सिंगल मदर का इकलौता वारिस है,जिसकी एक ही अकेली बहन है.दोनों अपने भाई के लिए जी-जान से जुटी हुई हैं.उनके पक्ष में ही दो बात कह दिया जाये.?क्या दोनों माँ-बहन के लिए आनंद उनकी भावनात्मक जरुरत नहीं हैं?क्या आनंद की सदेह पारिवारिक उपस्थिति जरुरी उनके लिए?पर कौन देखता है इनकी आवाज़ को देखा-सुनता है.र्थोड़े से उम्मीद की किरण दिखते ही दोनों उधर की ओर बड़ी आशा से देखती हैं.पर नतीजा 'ढ़ाक के तीन पात'ही रहता है.आनंद सही में बहुत ख़राब किस्मत लेकर आया है जो ऐसे मुल्क में फंसा जहां चमक-दमक के बीछ नैतिकता नुक्कड़ से निकल भागी है कहीं दुबक गयी है.और उससे भी बड़ी बदकिस्मती उसकी ये है कि वह ऐसे देश में पैदा हुआ जहाँ की सरकार अपने छवि निर्माण के लिए अपने कितने ही मरते नागरिकों को उसी हालत में छोड़ देती है,क्योंकि हमारी सत्ता का मुख्य ध्येय येन-कें-प्रकारें सत्ता में जमे रहना है और इसमें वोट चाहिए तो अमेरिका के चरण रज भी.जो आजाद देश की सरकार किसी मुल्क से अपने नागरिकों के नागरिक हितों को नहीं देख सकती,उससे ज्यादा की क्या उम्मीद लगायी जाये.ऐसे में हजारों संजना जान,शशि अब्राहम इत्यादि ऐसे ही जेलों में बंद अपने निर्दोष और बेबस परिजनों की पीड़ा में घुलते रहेंगे क्योंकि भावनात्मक लगाव ,जरूरतें तो अमेरिका ने पेटेंट करा लिया है ना?हमारे शास्त्रों से,व्यवहारों से तो यह कब का कहीं चला गया.यह सिर्फ अमेरिकन लाठी का ही जोर है जहाँ हमारी सरकार भैंस के रूप में अपनी पूँछ दबाये.मिमियाने की मुद्रा में उनके सामने खड़ी है जो सिर्फ 'पागुर'कर सकती है इससे ज्यादा करने पर उसे अपने पैरों में 'छान'पड़ने का डर है.और सत्ता पक्ष के इस नपुंसकता की वजह से 'आनंद जान'जैसे निर्दोष लोग अपने इस तरह के मुल्क के वाशिंदे होने का मातम ही मनाते रहेंगे और उनकी माँ-बहनें सब ओर से हार कर तथाकथित भगवानों के अड्डे का रुख करेंगी और बदले में कोरी बातों,दिलासा के कुछ क्षणों,जीवन-मृत्यु के सिद्धांतों के अलावा क्या पा सकेंगी? हमारी सरकार की तो आवाज़ भी गिरवी रख दी गयी है शायद?क्या सही में न्याय मिलने की उम्मीद करना भूसे के ढेर से सुई ढूँढने के बराबर है?जब तक भारत सरकार के नुमाईन्दों का मोरल नहीं जागेगा तब तक तो आनंद के लिए न्याय रेत से पानी निकलने सरीखा ही है.आनंद जान के परिवार जो कुल जमा तीन लोगों(आनंद खुद,उसकी माँ शशि अब्राहम और एक बहन संजना जान)का छोटा सा कुनबा है कि भारत सरकार से बस इतनी मांग है कि एक बार तो इस केस को देख लें.क्योंकि इसमें कुछ भी पाक-साफ नहीं है,सब कुछ सही नहीं चल रहा है है.संजना को कौन समझये हमारे राजा लोग 'twittering'और 'ipl'से छूटे तब तो कुछ काम करें.वह तो खुद काजल की कोठरी में बैठे लोग है-ऊपर से नीचे तक,भीतर तक काले.आनंद अभिशप्त है अपने ऊपर हुए इस जुल्म को मौन रहके झेलने को.अब तो उसके माँ की आँखों का पानी भी रीतने लगा है.क्या वाकई सत्यमेव जयते होता है,या हमारे समय का यह चालू जुमला हो चला है.आनंद जान के लिए मेरी उम्मीदें अभी भी उतनी ही शिद्दत से बरक़रार है जितनी पहले थी.एक भीतरी आवाज़ है जो कहती है उसको न्याय मिलेगा.पर कब. यह कौन बताएगा?

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