आसमान में हिस्सेदारी की कवायद (मरते आदिवासी)*(मनोज कुमार 'तपस')
विकास की अंधी दौड़ के कारण हज़ारों आदिवासी बदहाली के शिकार होते जा रहे हैं.हालात यह है कि आदिवासियों के पास मूलभूत सुविधायें तक नहीं हैं और इन्हें सरेआम मारा जा रहा है.हर बार माओवादियों का मुद्दा उठते ही आदिवासियों का सवाल सामने आता है और सता के गड़रिये माओवादियों को हांकने के नाम पर विकल्पहीन आदिवासियों के खिलाफ क्रूरता की सारी हदें लांघने लगते हैं.इसका परिणाम यह होता है कि माओवादी और आदिवासी ,जो इन गड़रियों के इन नीतियों के शिकार हैं,एक होने लगते हैं और सत्ता दोनों को एक ही समझ बैठती है.दरअसल इस तथ्य को समझने की जरुरत है कि ऐसा क्यों होता है अथवा होता ही रहा है?इसे समझने के लिए हम उत्तर प्रदेश के सोनभद्र इलाके को लेते हैं.सोनभद्र उत्तर प्रदेश का दक्षिणी-पूर्वी अंतिम जिला है जो विकास के नाम पर पिछले ६० सालों में बार-बार छला और ठगा गया.इस जिले में वैसे तो सब कुछ है,जल,जंगल,ज़मीन.चार राज्यों को छूता हुआ यह जिला वैसे तो औद्योगिक रूप से विकासशील कहा जा सकता है,लेकिन इस औद्योगिक विकास की अंधी दौड़ के कारण इस इलाके में रहने वाले आदिवासी रोजाना जिस तरह से मर रहे हैं,वह सब औद्योगिक विकास के बेहतर बढ़त और सरकारी उपेक्षा एवं अदूरदर्शिता का ही नमूना है.इस क्षेत्र में ntpc की बिजली परियोजनाएं 'सिंगरौली'और 'रिहंद',यूपी थर्मल पावर कारपोरेशन की बिजली परियोजनाएं अनपरा,ओबरा,हिंडाल्को की रेनुकूट बिजली परियोजना,रिहंद बाँध की जल-विद्युत परियोजना हाईटेक कार्बन,जेपी समूह की सीमेंट परियोजना और कनोड़िया केमिकल्स शामिल हैं.इन उद्योगों से निकलने वाला जहरीला रसायन जितनी तेजी से इस क्षेत्र को बंजर बना रहा है उससे साफ़ जाहिर है कि आने वाले १०-१५ सालों में यह क्षेत्र रहने के काबिल नहीं रह जायेगा.वैसे भी यह प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी है और इसका प्रभाव सबसे ज्यादा इस इलाके के आदिवासियों पर पड़ रहा है.पीने तक का पानी प्रदूषित हो चूका है,यदि यही विकास का चरण है तो हमें ऐसा विकास भी नहीं चाहिए जो गरीब आदिवासियों की ज़िन्दगी लेकर हासिल की जाए.
इस प्रकार के विकास का परिणाम यह हुआ है कि आदिवासी समाज अपनी वस्तु-स्थिति से चिंतित होकर मुख्यधारा से और अधिक कटने लगा है.इन सब स्थितियों का लाभ 'लाल सलाम'जैसे संगठनों ने उठाया है,झूठे प्रलोभनों और बेहतर भविष्य के नाम पर सत्ता और माओवादियों ने इन्हें छला और अपना उल्लू सीधा किया है.यह स्थिति किसी एक इलाके की नहीं है बल्कि हर उस राज्य की है जहां माओवादी सक्रिय हैं.नक्सलबाड़ी तो बस एक आरंभिक बिंदु है.सच्चाई यह है कि सन १९६७ से शुरू हुआ नक्सलबाड़ी आन्दोलन लगभग १२ राज्यों में अपना पैर पसार चुका है.सरकारी नीतियों के सही तरीके से लागू ना होने के कारण ही ऐसी स्थितियां बराबर जन्म लेती रही हैं.नेहरु ने उद्योगों को आधुनिक भारत का मंदिर कहा था लेकिन उन्हें इस बात की भनक नहीं थी कि उनका विकासवादी माडल आधुनिक भारत के लिए गले की फांस बन जायेगा.उद्योगों की स्थापना और विकास के खिलाफ आदिवासी नहीं हैं,बल्कि वह इस बात का विरोध कर रहे हैं कि आदिवासियों की कीमत पर हो रहे विकास को बंद किया जाये और उनकी जमीनें उनसे छीनकर उन्हें उनके ही घर से रातों-रात बेदखल ना किया जाये.इस प्रकार के विकास से आये दिन नए-नए सिंगुर और नंदीग्रामों का जन्म हो रहा है.मान लीजिये टाटा या अम्बानी साहब किसी इलाके में कोई फैक्ट्री ही बिठाते हैं तो उसका लाभ गरीब आदिवासियों को नहीं मिलने वाला है.तथाकथित सस्ती कार(नैनों) या मोबाईल का किसी आदिवासी के लिए कोई मायने नहीं रखता,जबकि उनकी पहली समस्या पेट से शुरू होती है और अंतिम समस्या के रूप में वहीँ ख़त्म भी.ऐसा नहीं है कि भारत के वज़ीरेआज़म डॉ.मनमोहन सिंह इन तथ्यों से अवगत नहीं हैं लेकिन राजनीति और कारपोरेट जगत के गठबंधन इस कदर मजबूत हो चुका है कि आदिवासियों की मौतों से भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.नक्सलवादी इन्ही वस्तुस्थितियों से लाभ उठाने में लगे हुए हैं.पश्चिमी बंगाल के उत्तरी छोर के जिले दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी आन्दोलन के मायने तो काफी पहले ही बदल चुके हैं,माओ की विचारधारा को ढ़ोने के नाम पर आज के माओवादी उसकी सड़ चुकी लाश को ढ़ो रहे हैं.लेनिन की आत्मा तो दंतेवाड़ा के बाद क्षत-विक्षत हो चुकी है.क्रांति के नाम पर अर्धसैनिक बलों को घेरकर मारने से पहले लाल सलाम के बुद्धिजीवियों को सोचना चाहिए था कि मरने वाले भी उन्ही की तरह आम आदमी थे,जो अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए जंगलों की ख़ाक छान रहे थे.फिर ऐसी क्रांति और कारपोरेट जगत की विकासवादी प्रक्रिया में कोई फर्क नहीं है दोनों ही आम आदमी के सहारे अपनी दाल गला रहे हैं.
भारत के भूमि-सुधर आन्दोलन की तरफ ध्यान दीजिये इससे यह बात बिलकुल साफ़ हो जाएगी कि गरीब आदिवासियों को सपना दिखाकर शुरू से लेकर आजतक हर जगह छला ही जा रहा है.आदिवासी समाज मुख्यधारा से कटा हुआ था,वह आरम्भ से ही जल,जगल,जमीन पर आश्रित था.आज भी उनकी मूल मांगें वही हैं-अपना जंगल,अपनी जमीन.जिसे सरकार विकासवादी चश्मे के भीतर से नहीं देख पा रही है.अंधी आँखों का देखा विकास का रास्ता किस ओर जाएगा इसकी कल्पना अब मूर्त होने लगी है.जह्र्खंड में आदिवासियों से आदिवासी होने का प्रमाण माँगा जा रहा है,वहाँ वही लोग आदिवासी हैं जो झारखण्ड में १९३१ की जनगणना में चिन्हित हैं.जिनके पास इस बात का सबूत नहीं है,वे सरकारी तौर पर आदिवासी नहीं हैं और इन वनवासियों को, जिनका सब कुछ जल,जंगल,जमीन से ही है,बाहर भगाया जा रहा है.उनकी ही जमीनों से बेदखल किया जा रहा है.इस आधार पर उनके संसाधनों को छीनने की कोशिश प्रदेश सरकार लगातार करती रही है.जिस समाज की आधे से अधिक आबादी निरक्षर है जिनके पास अपनी जमीनों के पट्टों के दस्तावेज़ नहीं हैं उन्हें उनकी जमीन से बेदखल करना दुनिया के किसी भी लोक-कल्याणकारी राज्य के लिए उचित नहीं है.बहुराष्ट्रीय निगमों को कारखाने की जगह किसीका हक़ मार कर देना नैतिकता का गला घोंटने के बराबर है.आदिवासी समाज जिस तरह के जीवनयापन वाला समाज है,वहाँ उसे पीने के लिए कोक,पेप्सी और मिनरल नहीं चाहिए उसे साफ़ स्वच्छ साधारण पानी की जरुरत है जिसे वह गर्मियों में जंगलों के बीच से बहने वाली सूख गयी नदियों के रेत को निकाल-निकाल कर कमर तक अन्दर धंसकर जमा करने की कोशिश करता है ताकि वह और उसका कुनबा ज़िंदा रह सकने की प्राथमिक शर्त पूरी कर सके.जरुरत इसी बात की भी होती कि उन्हें इस तरह के कष्टों से निजात दिलाएं.इतना ही नहीं उसे शिक्षित करने की जरुरत है,पर इसके लिए जिस ईमानदार एप्रोच की जरुरत है वह किस फाईल में दबी है?जगलों को काटकर उनका विकास संभव नहीं है,उन्हें स्कूल-कालेजों की जरुरत है,सड़क-बिजली की जरुरत है पर उनके अरमानों की लाश और विस्थापन की ज़मीन पर नहीं.
एक तरफ आदिवासियों के पास जीवन जीने की बुनियादी सुविधायें तक नहीं हैं और दूसरी तरफ इसकी आड़ में नक्सली इसका लाभ उठाकर अपने असामाजिक कामों को इनके हितों से जोड़कर इन्हें भी सत्ता के सामने मरने को एक शरीर बनने पर मजबूर कर रहे हैं.शासन को इन विसंगतियों को समझने की जरुरत है,जब तक इनका जीवन का और मानसिक विकास नहीं होगा तब तक नक्सली इन्हें अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते रहेंगे.इतना ही नहीं सरकार को भी अपने पूंजीपति मित्रों को इन वनवासियों की जमीनों को हड़पने में परदे के पीछे से ही सही मदद देना बंद करने होगा.आखिर ये पूरा कुनबा हमारे ही देश का तो हैं.इन सभी मुद्दों से सरकारी अमला पूरी तरह वाकिफ है लेकिन जब भी इन विसंगतियों को दूर करने की बात उठती है तो सरकार को इनसे बड़ी,माओवादियों की समस्या ही लगती है.माओवाद एक समस्या हो सकती है लेकिन क्या आदिवासी बहुल दुर्गम इलाकों में सड़क,पानी,बिजली की समस्या नहीं है.एक तरफ राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर सरकार के पास १००.००० करोड़ का बजट खर्च करने को है,लेकिन वहीँ आदिवासी इलाकों के विकास के मुद्दे पर सीमित संसाधनों का रोना रोया जाने लगता है. यह मात्र एक तथ्य नहीं है कि केवल २% आदिवासी ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं,बल्कि शर्मनाक हकीकत भी है.एक तरफ एमिटी,शारदा जैसे कारपोरेट विश्वविद्यालय बनाये जा रहे हैं जिन्हें करोड़ों की सब्सिडी दी जा रही है,वहाँ पढने वाके छात्रों में १%का दसवां हिस्सा भी इस तबके का नहीं है.आदिवासियों की बात तो छोड़ ही दीजिये एक आम भारतीय का बच्चा यहाँ दाखिला नहीं पा सकता.एमिटी में एमबीए की फीस १४ लाख रुपये हैं.ऐसे में यह अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है कि जिस सरकारी कर्मचारी की महीने की कुल आमदनी ही १०,००० के आसपास होती है वह पहले मकान का किराया,राशन,मेडिकल सुविधाओं को देखेगा या १४ लाख के सेमेस्टर फीस को.ऐसे में इसी परिस्थिति में एक असंतुष्ट पीढ़ी के पनपने का बीज पड़ जाता है.एक तरफ उन्हें शिक्षित करने की जगह शिक्षा का व्यवसायीकरण करके आम भारतीयों को शिक्षण संस्थानों से दूर करने की कोशिश हमारी समझ से बाहर है.यदि हमारे मानव संसाधन विकास मंत्री इन तथ्यों पर रोशनी डाल सकें तो यह पहेली सुलझ जाती शायद ?
इस देश में हजारों ऐसे कालाहांडी हैं जहां एक औसत आदमी जिंदगी भर भरपेट खाना खाने का सपना ही देखता रह जाता है.वहीँ आदिवासियों के लिए तो यह सपने से भी परे बात है.भूख से मरते हुए आदिवासी यदि अपने स्वार्थ (सुअर्थ)के लिए किसी से जुड़ भी जाते हैं तो आप उन्हें नक्सली बना कर गोली मार दें ऐसा दुनिया के किसी भी संविधान में नहीं लिखा हुआ है.कायदे से उन लूप होलों की ओर देखने की जरुरत अधिक है जहाँ जो थोड़ी बहुत सुविधाएं(मेडिकल,अनाज,पैसा आदि)इन नक्सलियों ने अपने हितों की खातिर इन तक पहुंचाई,उस तक कोई कोई सरकारी कारिन्दा क्यों नहीं पहुँच पाया?माननीय गृहमंत्री जी,मयूरभंज का इलाका जो जंगली और आदिवासी बहुल था,वहां से आदिवासियों को क्यों भगाया जा रहा है?क्या जीने का बुनियादी अधिकार जो प्रकृति ने इन्हें दिया है,उसे इनसे छीनकर या फिर इन्हें उजाड़ कर आप और आपकी सरकार क्या प्राप्त करना चाहती है?जंगल काटने से माओवादी साफ़ नहीं होने वाले हैं और वैसे भी आप इसी आड़ में खनिजों पर नज़र गडाए हुए हैं जिसका सौदा आपकी सरकार बहुत पहले ही कर चुकी है,माओवाद तो बस रास्ते को साफ़ करने का ज्यादा और ज्यादा खड़ा किया हौवा है.यदि उस सौदे का १०%हिस्सा भी विस्थापित आदिवासियों को बसाने के लिए खर्च किया गया होता तो आज ग्रीनहंट के नाम पर करोड़ों रुपये खर्चने की नौबत नहीं आती.उन ७८ जवानों की मौत का कारण सीधे तौर पर कोई आदिवासी नहीं है.बल्कि सरकारी अदूरदर्शिता है,ग्रीनहंट के द्वारा आप उस लाल कारीडोर को और गहरा बनाने पर तुले हैं.पहले तो एक पाकिस्तान बन ही चुका है और कितने पकिस्तान बनाये जायेंगे?एक तरफ देश की अर्थव्यवस्था सुधारने के नाम पर हजारों लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है और दूसरी तरफ गरीब आदिवासी अपने बच्चों को बेचने पर मजबूर हैं.बावजूद आप कहते हैं कि ये ही नक्सली हैं? खाली पेट विचारधारा नहीं पनपती.भूख में तनी हुई मुट्ठी कभी क्रांति की प्रतीक हुआ करती थी अब वह क्रांति का प्रतीक नहीं है.जो लोग खड़े भी नहीं हो सकते और जिनके प्राण निकालने से पहले खुद यमराज(यदि मृत्यु का यह देवता कहीं एक्जिस्ट करता है,लेखक को वैसे इसके मूर्त रूप पर न भरोसा था न है)भी शर्मा जाये उन्हें आप नक्सली घोषित कर रहे हैं?नक्सली जमात का चिल्ल-पों मचाकर सरकार सीधे-सीधे अपनी नीतियों की असफलता से मुंह मोड़ रही है.जिस पर कायदे से विचार करने की जरुरत है.दूसरी बात,लाल कारीडोर के नाम पर जिन इलाकों को चिन्हित किया गया है,वह सब एक सोची-समझी-रची गयी साज़िश का हिस्सा है.इसमें सरकारी तंत्र से लेकर कारपोरेट घराने तक शामिल हैं.ध्यान दीजिये जिन इलाकों से यह लाल गलियारा गुजरता है,उन इलाकों में अकूत प्राकृतिक संसाधन है.इन संसाधनों के दोहन के लिए सरकार और देसी-विदेशी कंपनियों से सरकारी समझौता हो चुका है,लेकिन सवाल इन इलाकों के संसाधनों के दोहन से पहले इन्हें खाली कराने का भी है.आखिर विस्थापितों की जिम्मेदारी कौन ले?न तो इसके लिए सरकार तैयार है न औद्योगिक घराने जिनके लिए मुनाफा ही प्रमुख मुद्दा है.यदि बलपूर्वक इन इलाकों को खाली करा भी लिया जाये तो विरोध की गुंजाईश भी कम नहीं है जो हमें दिख भी रहा है.आदिवासी इसी का विरोध कर रहे है.क्योंकि इसं गलियारे के अधिकतर क्षेत्र आदिवासी बहुल हैं.
आज़ादी के सवा छः दशक गुज़र जाने के बाद भी जिन आदिवासियों को अपनी राष्ट्रीयता सिद्ध करने के लिए पहचान-पत्र की जरुरत है वहां विरोध नहीं होगा तो क्या होगा?जिन ठठरियों पर मांस नहीं है और जो राईफल का भार भी सहन नहीं कर सकते,वह भला बुलेट का धक्का कैसे सहेंगे? विकास की नैतिकता को जब तक अमल में नहीं लाया जायेगा,तब तक दंतेवाडा जैसे दुष्कांड होते रहेंगे और व्यवस्था सारा दोष गरीब आदिवासियों पर डाल कर उन्हें नक्सली घोषित करती रहेगी और अपना छुपा हुआ हित साधती रहेंगी.क्रांति का रंग लाल कभी होता था,उसे अब पानी नीली पगड़ी के रंग में रंगिये,तभी सारा आसमान सबका होगा.लड़ाई आसमान की ही तो है जहाँ सबको अपनी छत चाहिए और प्रकृति ने यह हक़ नहीं दिया किसीको कि कोई किसी का आसमान उससे छीने.मनुष्य के लाशों की नींव पर विकास की इमारत नहीं खड़ी होनी चाहिए,जाने-अनजाने यही हो रहा है.(मनोज कुमार 'तपस'mobile-09891271275)
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