लोक कवि महेंद्र शास्त्री-जन्मदिवस विशेष



भोजपुरी लेखकों में महेंद्र शास्त्री का नाम महत्वपूर्ण है.वे भोजपुरी के आरंभिक उन्नायकों में से थे.उन्होंने भोजपुरी -लेखन और आन्दोलन -दोनों ही क्षेत्रों में काम किया.उन्होंने हिंदी में भी लिखा है परन्तु उनका श्रेष्ठ लेखन भोजपुरी में ही आया.उनका मूल्यांकन करते हुए नंदकिशोर नवल ने ठीक ही लिखा है कि "किसी भी हिंदी कवी में न तो उन जैसी सूक्ष्म सामाजिक चेतना है,न सामाजिक जीवन को बारीकी से चित्रित करने की उन जैसी क्षमता.उनका कृतित्व निःसंदेह इस शताब्दी के उत्तर भारत के ग्राम्य-जीवन को शब्दबद्ध करने वाला प्रामाणिक कृतित्व है." इस समय हिंदी में दलित-विमर्श और नारी-विमर्श के स्वर उठ रहे हैं.ये दोनों स्वर शास्त्री जी की कविता में पूरी शिद्दत के साथ उठे हैं.उन्होंने ब्राह्मणवाद का हरसंभव विरोध किया तथा अपने लेखन और व्यावहारिक जीवन-दोनों में सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ी.उनका लेखन भी इसी का अंग था.इसके फलस्वरुप प्रतिक्रियावादी तत्वों ने उन्हें किसी-न-किसी तरह हरदम प्रताड़ित किया,पर शास्त्री जी अपनी राह से डिगे नहीं.कुछ लेखक ऐसे मुद्दों पर प्रगतिशील बनते हैं जो सर्वमान्य हो चुके हैं,जिन पर व्यापक विरोध की आशंका नहीं रहती है.इसके विपरीत शास्त्रीजी हरदम ज्वलंत मुद्दे उठाते थे,वह भी व्यावहारिक स्तर पर और आक्रामकता के साथ.उनके लेखन के सम्बन्ध में नंदकिशोर नवल ने लिखा है-यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि उनके पास वैचारिक क्षमता का अभाव है.शास्त्रीजी की कवितायें एक व्यापक बौद्धिक पृष्ठभूमि में रचित हैं.सामजिक वास्तविकता को समझने के लिए कोई आरोपित दृष्टिकोण उनके पास नहीं है,पर इसके लिए अपने ढंग की वैचारिक शक्ति उनके पास है."-आमतौर पर कविगन गाँव की बड़ी खूबसूरत तस्वीर बनाते हैं,पर शास्त्रीजी की कविता में गाँव की जो तस्वीर मिलती है,वह विद्रूपता से भरी है.असल में वे गाँव की स्थिति में बदलाव चाहते थे और इसी इच्छा से प्रेरित होकर उन्होंने सामजिक-धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार किया.वह अतीत के व्यामोह से मुक्त थे.उनकी आँखों में बेहतर भविष्य का सपना था परन्तु उसका आधार अतीत नहीं था.
शास्त्री जी का जन्म १६ अप्रैल १९०१ (आज ही के दिन)में बिहार के सिवान जिला अंतर्गत रतनपुरा गाँव में हुआ था.इनकी माता का नाम 'श्रीमती रामज्योति देवी'तथा पिता का नाम श्री लक्ष्मी पाण्डेय था.पांच वर्ष की अवस्था में इनकी विधिवत शिक्षा शुरू हुई. इनकी शिक्षा का माध्यम संस्कृत था.स्थानीय स्तर (जगन्नाथपुर,महाराजगंज और गोदना)के संस्कृत विद्यालयों में पढने के बाद वे आगे की पढाई के लिए बनारस गए.वहाँ उन्होंने कई विद्यालयों-महाविद्यालयों में और कई शिक्षकों से विद्या अर्जन किया.१९२१ में असहयोग आन्दोलन के प्रभाव में आकर उन्होंने सरकारी परीक्षा छोड़ दी तथा असहयोग आन्दोलन में हिस्सेदारी की.१९२२ में उन्होंने काशी विद्यापीठ की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की.अध्ययन समाप्त होने के बाद उन्होंने जीविका के लिए शिक्षक का पेशा चुना पर वास्तव में वे एक्टिविस्ट ही रहे,वे बराबर किस-नस-किसी आन्दोलन में सक्रिय रहते.उन दिनों राहुल सांकृत्यायन का कार्यक्षेत्र सारं,सिवान और गोपालगंज ही था.शास्त्री जी अपने प्रगतिशील विचारों के कारण स्वाभाविक रूप से इनके नजदीक आये.वे राहुल जी के साथ 'किसान आन्दोलन'में सक्रिय रहे.इन्ही के प्रयासों से दिसंबर १९४७ में गोपालगंज में आयोजित दूसरे अखिल भारतीय भोजपुरी sammelan की अध्यक्षता राहुल जी ने की.आज़ादी की लड़ाई में भी वे सक्रिय रहे.इन्होने १८ महीने की सश्रम कैद भी काटी और अभी सज़ा काटते ८ माह ही बीते थे कि गांधी-इरविन समझौता हुआ,जिसके तहत वे रिहा हुए.१९४२ के भारत छोडो आन्दोलन में शास्त्री जी ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया और आज़ादी मिलने के बाद वे सक्रिय राजनीति से अलग हो गए,इनकी मृत्यु ३१ दिसंबर १९७४ को हुई.
हिन्दू धर्म में यह मान्यता है कि हल चलाना पिछले जन्म केपाप का फल है,इसीलिए ब्रह्मण हल नहीं चलाते हैं.शास्त्री जी स्वयम हल चलाकर इस धार्मिक मान्यता को तोड़ा.१९२३ में उन्होंने 'हलान्दोलन'चलाया ,जिसमे ब्राह्मणों से हल चलाने का आह्वान किया गया.इस सम्बन्ध में उनकी कविता है-
'कलमे चलावला से इजत रही,
त काहे केहू पकड़ी कुदार'
-हिन्दू समाज में गो-वध को लेकर बड़ी लम्बी-चौड़ी बात होती है,ऐसा लगता है कि हिन्दुओं को गाय से अधिक प्रेम है.शास्त्री जी ने अपनी कविता में इस प्रेम की पोल खोली है-
'गोबध बंदी से ही होई गाईन के सेवा कईसे?
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गोबध नईखे बंद बिदेशन में पर गाय निहाल बा.
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जान दिहला से ना होई गो-सेवा साधू बाबा
लूर बिदेशन से अब सीखीं ढोंग पसारे में का बा
जनता का नईखे मालूम ई धरम नांव पर जाल बा
गंगा रउरे देस में ऊ राउर अबग ,मान लीं.
पर रउरा से बढ़कर गाय सेवित सगरे,जान लीं.
रउरा से गो-सेवा होई?खूब बजाईं गाल बा
हिन्दू लोके महामूर्खता ठग लोके बाटे आधार
असल बात जे ठंढे नीयर इहो लोगवा भारी भार
बाकिर हम केते समुझाईं,लड़ी धरम के ढाल बा'

उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त अनीतियों को उजागर करते हुए बहुत तल्खी से लिखा-
हाय हिन्दुओं ऊपर जाओ भू पर ठौर नहीं है
तुम जैसों को इस दुनिया में रहना और नहीं है.
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चूहे,बानर आदि देवता हैं माने हुए तुम्हारे
जिनसे आजिज़ आज देश के समझदार हैं सारे
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कभी तुम्हारे रामचंद्र ने शम्बूक का सर काटा
गुरु द्रोण ने एकलव्य का एक अंगूठा चाटा.
विप्र शील-गुणहीन पूजिए,नहीं शुद्र ज्ञानी भी
यही तुम्हारी वेदाज्ञा है,जो तुमने मानी भी.
नीच बनाकर जिन्हें दबाते,वे न भला क्यों भागें.
ठोकर पर ठोकर खाकर भी क्यों न भला वे जागें ?

शास्त्री जी नारी मुक्ति के प्रबल समर्थक थे,उन्होंने स्त्री शिक्षा पर सर्वाधिक जोर दिया,साथ ही,दहेज़ प्रथा,पर्दा प्रथा के खिलाफ मानसिकता तैयार की.नारी जागृति के लिए उन्होंने महाराजगंज (सिवान)में एक महिला सम्मलेन का आयोजन किया,जिसका उदघाटन कमला सांकृत्यायन ने किया.उनकी कविता है-
पसुओ से बाउर बनवलअ हो,हाय पसुओ से.
दुलम भईल हवो पानी ,कैदी होके कलपतानी
जियते नरक भोगवलअ हो,हाय पसुओ से
हमनी मुइं त का परवाह,नया दहेज़,नया बियाह
परदा दाल सरवलअ हो,हाय पसुओ से.
परदा प्रथा पर नारी की संवेदना उनकी कविता में स्वानुभूति की तरह व्यक्त हुई है-
झरझर बरसे निस दिन नैना से पानी रे
का से कही हम दुःख के कहानी
परदा के सरला से थाईसिस बढ़तावे
घर भर दर जाला होता हलकानी रे.

वे शादी-विवाह तथा अन्य अवसरों पर नाच-बाजा एवं इस तरह के और आडम्बरों के विरोधी थे,इसके खिलाफ वे लोगों को बराबर समझाते रहते थे.वे किसी भी तरह के नशे के खिलाफ थे,यहाँ तक कि खैनी के भी.समाज-सुधार की बात करते-करते वे कभी-कभी मारा-मारी के लिए भी तैयार हो जाते थे.शास्त्री जी अपनी धुन के इतने पक्के थे कि अपनी बात कहने के लिए अवसर का ध्यान नहीं रख पाते थे.नाच के सामियाने में ही जाकर वे इसका विरोध करने लगते,एक बार एक विद्यालय में 'तुलसी जयंती'का आयोजन था.शास्त्री जी को पूरे सम्मान के साथ वहाँ बुलाया गया था.उन्होंने अपने भाषण में तुलसीदास के नारी और शूद्र सम्बन्धी विचारों की खूब आलोचना कर डाली.कुछ लोगों ने इसका विरोध किया परन्तु उन्होंने अपने तर्क और उदाहरण से सबको चुप करा दिया.असल में वे एक सुन्दर समाज चाहते थे और सुन्दर समाज बनने में बाधक तत्वों को देखकर खीझ उठते थे,यही खीझ उनके लेखन में कड़वे और भदेस भाषा के रूप में प्रकट हुई है.उन्होंने १९४० में भोजपुरी नामक पत्रिका पटना से निकली इसे भोजपुरी की पहली पत्रिका होने का गौरव प्राप्त है.यह पत्रिका केवल एक ही अंक तक उनके संपादकत्व में निकल पाई.उनके भोजपुरी कविता संग्रह का नाम है-भाकोलवा (१९२१),और धोखा(१९६२).अन्य कविताओं में-लगनवा,स्वागत,समधी जी,कईसन विदाई,दंगल होई,एही उमर में,सिवान से सोनपुर,भईयवा,सुथनी,सतुआ,मोसम,जियलो जहर बा .
आदि हैं.
शास्त्री जी की तरह कडवी सच्चाई कहने का साहस बहुत कम लोगों में होता है.आज विभिन्न कारणों से धर्मान्धता बढ़ रही है,ऐसे में उनके लेखन की प्रासंगिकता बढ़ जाती है.
**(जीतेन्द्र वर्मा(सिवान) के "आलोचना अप्रैल-जून २००९"में प्रकाशित लेख "लोककवि महेंद्र शास्त्री'का संपादित अंश,'महेंद्र शास्त्री जी के जन्मदिवस पर साभार)

Comments

anjule shyam said…
waqi ase log ab nahi hote..hote hain to bajar unhe panapne nahi deta...aksar bajar ke logon ko hi jyadetar dhrm aur parmpar aur sanskrit ka bachaw karte dekha hai....
behtrin post........

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