अतिशय प्रयोगों की बलिवेदी पर-1084 की माँ.



ऐसा कई बार होता है कि निर्देशक नाटक में अपनी क्षमताएँ दिखाने के लिए कई नयी चुनौतियां लेते हैं और लेने लगे हैं और इसके लिए नए-नए प्रयोग भी कर रहे हैं.दरअसल,यह लेखक के concept को संप्रेषित करने के स्थान पर अपने कलात्मकता को दिखाना होता है यानी यह अपने (निर्देशक के खुद के होने)होने को (being)प्रकट करना होता जा रहा है.कुछ-कुछ ऐसा ही पिछले दिनों रा.ना.वि.में महाश्वेता देवी के उपन्यास '१०८४ वें की माँ' का मंचन "१०८४ की माँ"के नाम से शांतनु बोस के निर्देशन में हुआ.सही मायने में उपन्यास या कहानी के रंगमंच को लेकर प्रसिद्ध रंग-आलोचक महेश आनंद की माने तो,उपन्यास या कहानी पढ़ते समय पातःक जिस अनूभूति का साक्षात्कार करता है और सूक्ष्म रूप से छिपा हुआ जो दृश्य-संसार उसके सामने बनता-संवारता है,उन दृश्यों को रचना के भीतर से तलाश करके मंच पर प्रदर्शित करने से ही कहानी के रंगमंच का स्वरूप निर्मित होता है.यही पाठक जब दर्शक के रूप में अपने उस पठित शब्दों को दृश्य रूप में मंच पर देखता है तो वह अपने मन:मस्तिष्क के आँखों से अपनी दृश्य दृश्य-रचना और पात्रों को तलाशने लगता है.१०८४ की माँ' के साथ भी पाठक यही उम्मीद लगाता है,ऐसे में जब वह उसे मंच पर देखता है.और उसकी गुणवत्ता की तुलना लाजिमी ही है.
इस नाटक में घटनाओं का तनाव कभी भी अपने चरम तक नहीं पहुँचता और इससे पहले कि प्रेक्षक नाटक से जुड़े तभी तेज़ संगीत उनका रसभंग कर देता है.नाटक में संगीत उसके कथ्य को प्रभावी बनाने तथा प्रेक्षकों तक पहुँचाने से होता है ना कि प्रेक्षागृह में बैठे दर्शक-समूह को अपने कानों पे हाथ रखवा देने से.यथार्थवादी दृश्य-बंध बहुत हद तक स्टेज पर कहानी का संसार हु-ब-हु रचता है.१०८४ की माँ में व्रती जिस परिवार का होता है उस परिवार में सिस्टम के साथ मिलजुल कर चलना समझदारी कहलाती है.तमाम झंझावातों में तबाह वही होते हैं जो उनके रास्ते आते हैं ना कि वे जो उन झंझावातों के संग ही चलते हैं,माने यह कि व्रती की फॅमिली इस जलते समय में भी खुशहाल है हमारे नपुंसक मध्य-वर्ग की ही तरह फिर सेट डिजाइन करते समय उनका घर दरारों वाला दिखाने का तुक समझ से परे है.हमारे दर्शक दो किस्म के हैं पहली श्रेणी उनकी है जो नाटक को नाटक देखना है सोचकर आते हैं.दुसरे वो जो नाटक के सभी पक्षों कथ्य,अभिनेता,नाट्य-समूह और निर्देशक आदि को भी ध्यान में रखकर आते हैं.यह दुसरे किस्म का दर्शक हमारा सही मूल्याङ्कन कर पाता है.नाटक का यही दर्शक जब ढाई घंटे बाद बाहर आता है तब उसके चेहरे पर व्याप्त शून्य चौंकता ही नहीं बल्कि इस ओर भी इशारा करता है कि अतिशय प्रयोगधर्मिता कहीं गले का कंटक ना बन जाये क्योंकि दर्शक निर्देशक के चश्मे से नाटक नहीं देखता बल्कि उसके नाटक देखने के अपने पैमाने होते हैं.कहीं-न-कही १०८४ की माँ'इस ओर से कमज़ोर पड़ जाती है.और नाटक जब कमज़ोर हो जाये अथवा शुरू में ही नाटक'टेक आफ' न ले पाए तब उस नाटक को एक सतही प्रस्तुति कह दी जाती है.यह नाटक टुकडो-टुकडो में आसमान को छूने की कोशिश भर बन के रह जाती है जरुरी तो नहीं कि हर प्रयोग 'महान'प्रस्तुति की आधार-भूमि रच दे.एक महान रचना /प्रस्तुति एक बड़े फलक की होती है और उसे उसकी समग्रता में ही अच्छे और उचित प्रयोगों से ही महानता तक पहुँचाया जा सकता हाई खली बौद्धिक बाजीगरी या चमत्कार नहीं खडा कर सकता.निर्देशक को चाहिए कि वह दर्शक को पाठ का दृश्य दे जो स्वतः प्रस्तुति में ही अभिनेताओं के माध्यम से निर्मित होता जाता है न कि उसकी रचना का गुरुतर भर निर्देशक स्वयं उठाये.वैसे भी जो रंगमंच विशुद्ध रूप से अभिनेता का माद्यम है वह अब निर्देशक का हो चला है,अभिनेता का इस तरह से हटना रंगमंच के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
और 'हज़ार चौरासी कि माँ'इसी का शिकार होके रह गयी है,प्रयोगों से दिमाग हटे तो शायद यह आपको यह सोचने को मिले कि महाश्वेता देवी के इस नावेल की पृष्ठभूमि का वह माहौल जिसमे व्रती,सोमू,लाल्टू,नंदिनी जैसे युवा घुट रहे थे और उनकी माएं दीवारों से इस पीढ़ी के खून के धब्बे भी नहीं पोंछ पायी,तथा कलकत्ते का वह मंज़र जो इस दौर में सुरेन्द्र तिवारी जैसों को दिखा था -
कलकत्ता/ ओह कलकत्ता/
आंसुओं से भींगा/खून से तर/
अट्टालिकाओं से भरा अस्थि-पंजर/
आशाओं-निराशाओं के बीच/
मीलों का लंबा सफ़र/कहाँ है द्वार?
कहाँ है अंत?कौन मुझे जायेगा बता-
कलकत्ता/ओह कलकत्ता'---
या फिर यह कि-
'दौलत/पूँजी,
दोनाली/खून,
विरोध में उठते हाथ /
चीखों से दबी दिशायें
शोर/भीड़/अश्रु गैस/गोलियां.
हर जगह वही एक चमक ..वही एक चेहरा /
पूँजी/पूँजी//पूँजी///-इस ओर तो हमें आना ही होगा क्योंकि समाज की जिस हकीकत ने उस कवि के दिमाग की नसें मोटी कर दी थीं जो अँधेरे में था,आखिर उसी तरह की समस्या व्रती लाल्टू जैसे युवकों की भी तो थी..निर्देशक महोदय इस तनाव को भी तो अधिक चमत्कारी ढंग से कहने के बजाय सीधे तौर पर उसके कडवे नंगे रूप में ले आते तो नाटक बेहतर हो सकता था जैसा कि आपके थोड़े से प्रयास एकाध दृश्यों में दिखे.बहरहाल,एक बहुत उम्मीदों वाले दर्शक को नाउम्मीद कर गया यह नाटक.-'लगता है,अपेंडिक्स फट गया ...'
'१०८४ की माँ'एक ख़ास समय में उपजे नक्सलबाड़ी मूवमेंट की पृष्ठभूमि में अपना कथा-संसार रचता है.सुजाता(नायिका)और उसके सबसे छोटे बेटे व्रती चैटर्जी के बीच का माँ-बेटे-बेटे-माँ का स्नेहिल सम्बन्ध और एक उच्च-मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे होने के बावजूद failure of system के दौर में व्रती के नक्सल मूवमेंट के समर्थक व्यक्ति के तौर पर इस सिस्टम द्वारा बलि चढ़ा दिए जाने की कथा है.यानी.व्रती चैटर्जी माँ के लिए एक निहायत नन्हा मासूम बच्चा है जो परिवार में सिर्फ माँ से ही जुड़ा हुआ है पर वह अ-पारिवारिक नहीं है ,ठीक इसी समय पर वह अपनी माँ से ही नहीं बल्कि अपनी प्रेमिका ,मित्रों आदि से भी एक बुद्धिजीवीता के स्तर पर बातें करता है.फिर भी नाटक में इस कैरेक्टर कभी खुल नहीं पाता है.और रही सही कमी उसके अपने प्रेम के क्षणों में नंदिनी की आँखों से ७० के मशहूर गानों'छुप गए सारे नज़ारे ओये क्या बात ,रफ्ता रफ्ता देखो आँख मेरी लड़ी है,ये लड़का हाय अल्ला कैसा है दीवाना-जैसे गीतों की योजना,उस जुड़ाव को बेतरह हाशिये पर धकेल जाती है जिन्होंने ये नावेल पढ़ा है और व्रती जैसे चरित्र को ऐसा करते देखते हुए निर्देशक की अतिशय प्रयोगशीलता पर हंसी भी आती है.नाटकों का यह प्रयोग उसके कथ्य से परे जाकर दर्शकों को अपने से अलगाने का काम जाने-अनजाने करने लगता है,इसका ध्यान रखना चाहिए था.
शांतनु बोस का कहना है कि'यह प्रस्तुति क़ानून-व्यवस्था और आतंकवाद के आपसी रिश्तों को समझने का प्रयास है'-पर अफसोस यह प्रयास पूरे नाटक में रंच-मात्र भी नहीं उभरता.इतना ही नहीं जब आप नाटक की प्रकृति को 'वृत्तचित्र'सरीखा बता रहे हैं तब यह बात अधिक जरुरी हो जाती है कि प्रयोग कितना और कहाँ तक जायज़ हो सकेगा.कही आपका जोर दर्शक को चमत्कृत करने पर तो नहीं?जैसा कि आजकल फैशन चल पडा है कि एक बड़े प्रेक्षागृह में एक बड़े से चमत्कारी सेट का वितान खडा किया जाये,जिससे कि जब दर्शक रंगस्थल पर आये तो उसके पास सोचने-समझने की स्थिति ना होकर केवल भौंचक होने की स्थिति रहे.ऐसे ही कई प्रयोग पिछले कुछ समय में लगातार देखने में आये हैं पर बड़े अफ़सोस की बात है कि इनमें से कुछ ही इस तरह के सफल नाटक रहे और अधिकांशतः का जोर सिर्फ इसे अद्भुत बनाने का ही था.यथार्थवादी रंगमंच का नाटक तैयार करते समय यह जरुरी नहीं की मंच को भरा-पूरा दिखने के लिए बहुत से वस्तुओं की उपस्थिति भी जरुरी हो.१०८४ की माँ में'ऐसे गैर-जरुरी चीज़े कई हैं.रंग-जगत में यह कहा नजात है कि स्टेज पर मौजूद हर वस्तु का उपयोग होना चाहिए (यहाँ उपयोग से मायने वस्तुओं के तार्किक प्रयोग से है) पर शायद निर्देशक यहाँ बड़ी चूक कर गए हैं.

Comments

anjule shyam said…
नाटक कम से कम दर्शकों को ध्यम में रख कर दिखाए जाएँ तो बेहतर है...एक तो दर्शक कम उपर से प्रयोगधर्मिता कहाँ तक आम लोग पचा पाएंगे.....

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