"छठ" तो बस "छठ" ही है..


बात जब भी किसी त्यौहार की होती है तो स्वतः ही अपने सामाजिक परिवेश के कई सन्दर्भों से जुड़ जाता है। बिहार के लोगों के लिए इस पर्व का महत्त्व कितना है इसकी सही तस्वीर देखनी है तो रेलवे रिजर्वेशन की तह में जाइए। यहाँ बिहार जाने वाली सभी ट्रेनों में कोई एक भी जगह किसी भी क्लास में खाली नहीं है। अभी-अभी तत्काल कोटे को चेक करने बैठा था। सच कहूँ तो ,मन में एक प्रकार की हेकडी भी थी कि,नोर्मल टिकट मिले अपनी बला से,हम तो तत्काल भी ले सकते हैं। अब क्या बताऊँ ,कहना बेकार ही है कि साड़ी हेकडी हवा हो गई है,उसमें भी वेटिंग लिस्ट दिखा रहा है। अब सोच रहा हूँ कि आख़िर सरकार को कितनी ट्रेनें चलानी होगी बिहार के लिए या कितनी भी चल जाए कम ही है?इन सब झमेलों के बीच मेरी परेशानी अभी बची हुई है कि आख़िर अब कौन-सी जुगत भिडाई जाए जिससे कम-से-कम छठ को घर वालों के साथ मना सकूँ। सूर्योपासना का यह पर्व बिहार की सांस्कृतिक पहचान है । घर से बाहर रहने वाले तकरीबन सभी बिहारी भाई चाहे वह अधिकारी हो,छात्र हो,शिक्षाविद हो,नेता हो,या फ़िर मजदूर सभी कम-से-कम यह पर्व घर के लोगों के साथ मनाना चाहते हैं और इसका पूरे वर्ष बड़ी बेताबी से इंतज़ार करते हैं। आज सुबह ही 'नई दुनिया'में एक छोटी सी ख़बर पढ़ी कि 'कोई सुमेश नाम का पेंटर ,जो सिवान का रहने वाला है इस बात को लेकर बेहद परेशान है कि छठ पर माँ और बीवी-बच्चों के लिए जो नए कपड़े उसने ख़रीदे हैं किस तरह से उनतक पहुंचेंगे सुमेश तो एक उदाहरण है,इस परिस्थिति के शिकार सब हैं। छठ पर डूबते और उगते दोनों ही बेला में सूर्य को नए वस्त्रों में अर्घ्य देने की परम्परा है। इसी कारण सभी वैसे लोग जो घर से बाहर कमा रहे हैं और अपने परिवार का एकमात्र कमाई का जरिए हैं उनसे घर की अपेक्षाएं काफ़ी अलग किस्म की है। इसको बस यूँ समझ लीजिये कि जो परिवार पूरे वर्ष चिथडों में काट देता है उसके लिए नए कपड़े देखने का अवसर भी यही त्यौहार लाता है। ऐसे में मैं इस बात को लेकर संतोष कर सकता हूँ कि जैसे-तैसे जुगाड़ करके मैं घर तो चला ही जाऊंगा । होली-दिवाली-दशहरा इन सब के अपने मायने हैं पर छठ इन सबमें अलग और विशिष्ट है ,कम-से-कम बिहार के सन्दर्भ में तो यह बात सोलह आने सही बैठती है। मेरा छठ को लेकर एक और भी पहलु है कि आख़िर क्यों मैं साल भर घर से दूर रहने पर भी इसी मौके को घर जाने के लिए क्यों चुनता हूँ और क्यों इसके लिए तमाम दुश्वारियां सह कर भी घर जाना चाहता हूँ। सही कहूँ तो मेरे सभी बचपन के साथी-संघाती जो इस देश के कोने-कोने में अब अलग-अलग कारणों से चले गए हैं या रह रहे हैं इस पर्व में घर आते हैं और उन सबसे इकठ्ठा मिलना हो जाता है। फ़िर हमारे साअथ वाले बच्चों और अभी वाले बच्चों जो गाँवमें रह रहे होते हैं उनमें क्रिकेट,कबड्डी,और फूटबालये तीन मैच खेले जाते हैं। इस मैच का सभी बेसब्री से इंतज़ार करते हैं और फ़िर एक मिश्रित टीम बनाकर दूसरे गाँव से मैच लिया जाता है। पता नहीं ये किसने कब शुरू किया था पर आज भी बदस्तूर जारी है। छठ सही मायनों में एकदम अपना वाला त्यौहार है। सुबह घाट से लौटते व्रतियों से अंजुली फैला कर प्रसाद में ठेकुवा मांगने में आज भी किसीको कोई झिझक नहीं होती है और इस ठेकुवे का स्वाद तो क्या कहने । किसी और कुसमय (अन्य अवसर पर)बनने पर वैसा स्वाद नहीं मिलता। शाम को कोसी भरने और उसके जलते दीयों के चारों ओर गन्ने का घेरा बनाना अद्भुत अनुभूति देता है,अब ऐसे पर्व के लिए थोड़ा कष्ट तो सहना चलेगा।

अंत में एक निवेदन हैं अपने बिहारी नेताजी लोग से कि छठ तो अपने गंगा घाट और गाँव-घर के पोखरे पर ही जंचता है । इस बात को मैं पक्के विश्वास से कह सकता हूँ कि 'जुहू बीच/चौपाटी पर छठ 'छठ'ना रह कर बस सांस्कृतिक तमाशा ही बन जाएगा।त्यौहार सद्भाव के लिए होना चाहिए,मैत्री,शान्ति बढ़ाने हेतु न कि पावर गेम या शक्ति प्रदर्शन का माध्यम hetu ।

Comments

Unknown said…
" 'जुहू बीच/चौपाटी पर छठ 'छठ'ना रह कर बस सांस्कृतिक तमाशा ही बन जाएगा।त्यौहार सद्भाव के लिए होना चाहिए,मैत्री,शान्ति बढ़ाने हेतु न कि पावर गेम या शक्ति प्रदर्शन का माध्यम..." क्या खूब बात कही है साहब… मजा आ गया, एक ही झटके में सारे नेताओं को लपेटकर ले गये… बहुत बढ़िया पोस्ट…
बहुत सटीक बातें कही है आपने।
पर्व कोई भी हो, परि‍वार के साथ मनाने का अपना ही मजा है, और जब दूर हों तो रेल आदि‍ से आना-जाना कठि‍न होता है, मगर जज्‍बे के आगे ये परेशानी भी कोई बाधा नहीं बनती।
बढ़ि‍या लि‍खा।

Popular posts from this blog

विदापत नाच या कीर्तनिया

लोकनाट्य सांग

लोकधर्मी नाट्य-परंपरा और भिखारी ठाकुर : स्वाति सोनल