राजघाट के बगल में लगता है"चोर-बाज़ार"..


मेरे एक अभिन्न मित्र हैं-अजय उर्फ़ लारा। लारा यूनिवर्सिटी के लिहाज़ से भी सीनियर छात्र हैं। उनकी संगती में दिल्ली और इसके कई रंग हमने देखे-जाने हैं। इन्ही यादों में बसा है-दिल्ली का चोर बाज़ार।इस बाज़ार की प्रशिद्धि आप सबको भी पता होगी । देशी खरीददार ही नहीं बल्कि दिल्ली भ्रमण पर आए विदेशी पर्यटकों की भी मनपसंद जगह रही है-चोर बाज़ार।इसके बारे में किसी से भी पूछने पर कोई ख़राब सा वाकया अभी तक मेरे सुनने में नहीं आया और कमोबेश सभी बड़े मज़े से रस ले-लेकर चोर-बाज़ार के किस्से सुनाया करते हैं कि फलां चीज़ ऐसे मिलती है अमुक सामान बढ़िया-सा मिल जाता है और अमुक सामान ऐसा होता है उनके (बिक्री करने वालों के)पास खरीददारी के कुछ तरीके आपको आने चाहिए इत्यादि-इत्यादि।
इन दिनों में इस बाज़ार की जगहें कई बार बदली हैं। पहले यह लाल-किले के पीछे लगा करता था,बाद में जामा-मस्जिद वाले रास्ते पर लगने लगा । दिल्ली ब्लास्ट के बाद इस "चोर-बाज़ार"को ऐसी जगह मिल गई है जिसको देखकर ख़ुद आश्चर्य होता है कि सरकार ने इसको "राजघाट"के पास लगाने की परमिशन कैसे दे दी है। यकीन जानिए अब जब कभी भी आप चोर-बाज़ार जायेंगे इसको राजघाट के बाजू से जाने वाले रास्ते पर ही जमा हुआ पाएंगे।इस बात के लिए आप चाहे सर धुन ले पर है यह कड़वी सच्चाई।
चलिए एक पल को हम यह मान लेते हैं कि यहाँ ऐसा-वैसा कोई काम नही होता जैसा हम 'सामाजिक'लोग मानते हैं कि 'ग़लत'है,फ़िर भी क्या इस बाज़ार को राजघाट के पास लगाने की इजाज़त देना ठीक है?महान वैज्ञानिक आइन्स्ताईन ने कभी कहा था कि 'आने वाले वर्षों में लोग इस बात पर विश्वास नहीं करेंगे कि गांधी जैसा कोई व्यक्ति भी हुआ था'-पिछले दशकों में जिस तरह की कुछ घटनाएं घटी हैं और हो रही हैं उनको देखते हुए इस बात को स्वीकारना ही पड़ेगा अब ऐसा लगने लगा है। या फ़िर इस बात को हमें कुछ यूँ देखना चाहिए कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं ?या ये भी कि यहाँ 'चोरी-वोरी' का कोई माल नहीं मिलता -ये सोच कर खुश और संतुष्ट हो लिया जाए?
जो भी पर प्रशासन को इस ओर ध्यान देना ही चाहिए कि 'चोर बाज़ार'को उपलब्ध करायी गई जगह कौन-सी है। अनजाने में ही सही (मान लेते हैं)हुई गलती का निवारण जरुरी है दिल्ली के सन्डे की पहचान इस 'बाज़ार'को कहीं और लगाया जाए कम-से-कम उस 'व्यक्ति'का कुछ तो लिहाज़ हो,वैसे ही अब हमलोग (इसमे सभी किसी न किसी रूप में शामिल हैं) भांति-भांति से उस 'महापुरुष' का मज़ाक बनाते रहते और देखते रहते हैं। अब कम-से-कम उसकी समाधि का रास्ता चोर-बाज़ार के रास्ते की पहचान तो न बने कोई ये तो न कहे कि -"वही राजघाट के बगल में"....

Comments

Anonymous said…
सब से पहले तो इस बात की बधाई कि आपने अपनी परिचय बहुत अच्छे ढंग से लिखा है।
चोर बाज़ार की याद ताज़ा करवाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद. मैं भी अपने गर्दिश के दिनों में 1988-89 के समय में एक बार इस बाज़ार में घूम चुका हूं......तब यह शायद लाल किले के पीछे लगा करता था. खरीदा शायद कुछ नहीं था ...लेकिन इस बाज़ार को देखना ही अपने आप में बहुत रोमांचकारी लगा था। सब कुछ बिक रहा था।
admin said…
राजघाट के पास चोर बाजार का लगना वाकई में शर्मनाक है। इसपर सरकार को तुरंत ध्यान देना चाहिए।
दस साल पहले मै भी चोर बजार गया था, ये ढूँढने कि‍ हफ्ते-भर के भीतर मेरी दो बहुमूल्‍य चीजें चोरी हो गई थी, सोचा था, दुबारा खरीद लूँगा या ऑंखों से जी भर के देखूँगा और ये सोचता हुआ लौट जाउँगा कि‍ अब तो ये परायी हो गई।
(राजघाट के पास इस बाजार का होना शर्मनाक है, इसका वि‍रोध होना चाहि‍ए। आपने सही मसला उठाया)

Popular posts from this blog

विदापत नाच या कीर्तनिया

लोकनाट्य सांग

लोकधर्मी नाट्य-परंपरा और भिखारी ठाकुर : स्वाति सोनल