मेरा गांव बदल गया है.शायद पूरा भोजपुर ही....
वैसे शैक्षणिक कारणों से घर से बाहर रहते तकरीबन १०-११ साल बीत चले हैं पर गांव-घर की खुशबू अभी भी वैसी ही सांसो में है.इस स्वीकार के पीछे हो सकता है मेरा गंवई मन हो. मैंने जबसे होश संभाला अपने आसपास के माहौल में एक जीवन्तता दिखी,मेरा गांव काफ़ी बड़ा है और जातिगत आधार पर टोले बँटे हुए हैं.बावजूद इसके यहाँ का परिवेश ऐसा था, जहाँ जात-पांत के कोई बड़े मायने नही थे.ये कोई सदियों पहले की बाद नही है बल्कि कुल जमा १०-१२ साल पहले की ही बात है. गांव में सबसे ज्यादा जनसँख्या राजपूतों और हरिजनों की है,बाद में मुसलमान और अन्य पिछडी जातियाँ आती हैं.कुछ समय पहले ही गांव की पंचायत सीट सुरक्षित घोषित हुई है और अब यहाँ के सरपंच/मुखिया दोनों ही दलित-वर्ग से आते हैं.साथ ही अपने गांव की एक और बात आपको बता दूँ कि मेरे गांव में आदर्श गांव की तमाम खूबियाँ मौजूद है.मसलन हर दूसरे-तीसरे घर में वो तमाम तकनीकी और जीवन को सुगम बनाने वाली सुविधाएं मौजूद हैं.जब तक मैं था या फ़िर मेरे साथ के और लड़के गांव में थे तब तक तो स्थिति बड़ी ही सुखद थी.मेहँदी हसन,परवेज़,जावेद,नौशाद,वारिश,कलीम सभी लड़के होली में रंगे नज़र आते थे और दीवाली में इनके घरों में भी रौशनी की जाती थी,और सब-ऐ-बरात पर हमारे यहाँ भी रौशनी की जाती.होली में मेरे यहाँ तीन चरणों में होली मानती है पहले रंगों वाली(इस होली में बच्चे-बच्चियां ,किशोर-किशोरियां शामिल होते),दुसरे में बूढे,जवान,बच्चे सभी शामिल होते ,जोगीरा गाया जाता और धूल,कीचड़ आदि से एक दूसरे को रंग कर एकमेक कर दिया जाता मानो सब एक दूसरे को यही संदेश देते थे कि आख़िर मिटटी का तन ख़ाक में ही तो जाना है क्यों विद्वेष पालना,फ़िर नहाने-धोने के बाद तीसरे चरण की होली साफ़-सुथरे,नए कपडों में अबीर और गुलाल से खेली जाती.यहाँ सिर्फ़ त्योहारों में ही नही बल्कि दिनचर्या में भाईचारा दीखता था जब कोई भी दुखहरण काका के सेहत की ख़बर ले लेता था और गांव की भौजाईयों से चुहल करता हुआ निकल जाता.घरो या बिरादरी का बंधन,मुसलमान ,हिंदू जातिभेद हो सकता है रहा हो पर उपरी तौर पर नहीं ही दिखता था.इससे जुड़ा एक वाकया याद आता है जो मेरे ही परिवार से ही जुडा है.हुआ यूँ था कि मेरी सबसे छोटी बहन बीमार थी मैं भी मिडिल स्कूल का छात्र था.तब हर जगह से निराश होने के बाद पिताजी ने व्रत लिया की रोजे और ताजिया रखेंगे जो बाद में हुआ भी और मुहर्रम के समय लगातार २ साल तक पिताजी ने ताजिया ख़ुद बनाया और जगह-जगह घुमाने के बाद कर्बला तक मैं ख़ुद अपने कंधो पर ले गया था जिसमे मेरे दो फुफेरे भाई और चंदन,संतोष जैसे दोस्त भी थे.मुहर्रम के अवसर पर निकलने वाले अखाडे में हमारे सभी धर्म-वर्ग के कोग अपने-अपने जौहर दिखाते थे.हिन्दुओं में ये अखाडा रक्षा-बंधन की शाम को निकलता था.इसे महावीरी अखाडा कहा जाता इस अखाडे में लतरी मियाँ(इनका असली नाम मुझे मालूम नहीं )के लाठी का कौशल आसपास के दस गांवों के लठैतों पर भारी था.अच्छा हुआ गांव की इस स्थिति को देखने से पहले ही अल्लाह ने उन्हें ऊपर बुला लिया.अब जबसे गोधरा हुआ है (गोधरा ही सबसे अधिक जिम्मेदार है क्योंकि अयोध्या अधिक दूर ना होने के बावजूद गांव का माहौल ख़राब न कर सका था या यूँ भी कह सकते हैं कि संचार माध्यमों की पहुँच इतने भीतर तक तब नहीं हुई थी)अब त्यौहार और अखाडे हिन्दुओं और मुसलमानों के हो गए हैं.नए लड़के तो पता नहीं किस हवा में रहते हैं,अपने साथ के लड़के भी जो अब बाहर रहने लगे हैं अजीब तरीके से दुआ-सलाम करते हैं.वारिश गांव में ही है कहता है-'इज्ज़त प्यारी हैं तो भाई इन छोकरों के मुंह ना लगो ,ये इतने बदतमीज़ हैं कि गांव की लड़कियों पर ही बुरी निगाह रखते हैं,बड़े-छोटों की तमीज तो छोड़ ही दो,ये तो पता नहीं किस जमाने की बात इन्हे लगती है"-मैं हैरत से देखता रहा उन लड़कों को जो बाईक पर बैठ कर तेज़ी से बगल से गुज़र जाते हैं और पता नहीं कैसा हार्न मारते हैं जिससे कि खूंटे से बंधे मवेशी बिदक जाते हैं.निजामुद्दीन चाचा जिनके लिए कहा जाता है कि उनके लिए उनकी अम्मी ने "छठ"का तीन दिवसीय बिना अन्न-जल के व्रत रखा था और मरने तक बड़ी खुशी से बताया करती थी कि "हमार निजाम,छठी माई के दिहल ह"-निजाम चाचा भी इस बात को एक्सेप्ट करते थे.आजकल दिल्ली में ही हैं और घर कम ही जाते हैं.रमजान बीते ज्यादा दिन नहीं हुए मगर ईद पर यूँ ही हॉस्टल के कमरे में रह गया बिना सेवईयों के.जब रोजे चल रहे थे तब फ़ोन किया कि -अब तो पिताजी कि ऐश होगी रोज़ इफ्तार के बहाने कुछ न कुछ बनाने की डिमांड करेंगे?'-मम्मी ने जवाब दिया-'बाक अब वे इफ्तार नही करते?'-हमारे घर में इफ्तार मुसलमान भाईयों के कम्पटीशन में होता था यानी पिताजी का मानना था कि-'खाली उन्ही की जागीर है क्या इफ्तार'-पिताजी बाकायदा नियम-कायदे से इफ्तार करते और शुरू करने से पहले हमसे मुस्कराकर कहते -'अभी कोई नहीं खायेगा पहले अजान हो जाने दो'-और हम पालन भी करते.मतलब एन्जॉय करने का कोई भी मौका नही छोड़ा जाता,ऐसा करने वाली फैमिली सिर्फ़ हमारी ही नहीं थी और भी कई थे पर अब...(?).खेतों में धान बोते मजदूरों के साथ लेव (धान बोने से पहले खेत में तैयार किए कीचड़)में खड़ा होने पर गांव के रिश्ते का भतीजा जो पटना में मेडिकल या इंजीनियरिंग की तैयारी करता है मुझसे उखड़े हुए बोला-'क्या मुन्ना चा (भोजपुरी समाज में चाचा को नाम के साथ चा जोड़ कर बोला जाता है)दिल्लियो रह कर भी एकदम महाराज एटिकेट नही सीखे अपना नहीं तो हम लोगों का ख्याल कीजिये महराज"-मैं सोचता हूँ अपने खेत में खड़ा होना भी किसी एटिकेट की मांग करता है क्या?अब मेहँदी मियाँ हाजी हो गए हैं और 'मिलाद'पढ़ते हैं पाँच वक्त के नमाजी हैं.दूर से मुस्कराकर निकल जाते हैं ये लड़का गांव का पहला पेस बॉलर था.श्याम बाबा कह रहे थे-'ऐ बाबा(ब्राह्मणों को बाबा कहते हैं)कहाँ-कहाँ कौन से टोला में घूमते रहते हो तुम्हे पता नहीं अब गांव का माहौल कितना ख़राब हो गया है?-अब मैं उनकी इस बात का क्या जवाब दूँ चुपचाप हूँ-हाँ कर देता हूँ.गांव में रिजर्व सीट होने के बाद सवर्णों की चिंता हैं कि'पता नहीं गांव का क्या होगा ?'-मेरा गांव बदल गया है और शायद ये बदलाव पुरे आसपास में हो रहा है........
Comments
आपकी पोस्ट अच्छी लगी, मैं कभी गांव में नहीं रहा, मेरे गांव से लगा ही एक कस्बा है वहीं रहा.....आपके गांव की बात सुन कर लगा कि क्या कल्पनाओं वाला गांव यही होता है....
What you have described may be utopian village and it may not be reality?
I belong to Bhojpur district too..
and I know the tolerance level of the native particularly Brahmin. I can describe at length but frst let me know your village